Book Title: Dhammapada 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 263
________________ एस धम्मो सनंतनों पड़ना शुरू हो जाता है। प्रेम की आंख हो तो परमात्मा पैदा हो जाता है। और जीवन जुड़ा है। हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी है। घास का पौधा भी चांद-तारों से जुड़ा है। घास का पौधा भी कंपता है तो चांद-तारे कंप जाते हैं। सब कुछ संयुक्त है। उपनिषदों ने कहा है, यह सृष्टि ऐसे है, यह विश्व ऐसे है, जैसे मकड़ी का जाल। एक कोने से मकड़ी के जाल को जरा सा हिलाओ, पूरा जाल हिल जाता है, दूर-दूर तक के कोने हिल जाते हैं। यह कायनात का आहंग है कि सहरे - हयात चटक कली की सितारों को गुदगुदाती है। चटक कली की सितारों को गुदगुदाती है— छोटी सी कली! पर दूर के बड़े-बड़े . सितारे भी छोटी कैली के खिलने से खिल जाते हैं। अगर मेरे प्रेम में हो तो तुम इसकी फिक्र छोड़ दो कि मुझे पता चलेगा कि नहीं; चल ही जाएगा। मेरे पास प्रेम को देखने की आंख है । तुम्हें बताने की जरूरत भी न पड़ेगी। तुम्हें यह न कहना पड़ेगा कि तुम्हें प्रेम है। तुम्हारी उलझन भी मैं समझता हूं, क्योंकि तुम्हारे पास अभी प्रेम की आंख नहीं, 'डरते हो, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भीतर प्रेम हो और मुझे पता भी न चले। तुम्हारे भय को मैं समझता हूं। तुम्हारे भय से मेरी सहानुभूति है, लेकिन इसकी तुम चिंता ही छोड़ दो। तुम्हें प्रेम है तो मुझे पता चल ही जाएगा। तुम सिर्फ प्रेम में डूबने की फिक्र करो । ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि प्रेम हो और पता न चले। लेकिन साधारणतः हमें प्रेम को जतलाना पड़ता है, बतलाना पड़ता है। प्रेमी एक-दूसरे से कहते नहीं थकते कि मुझे तुमसे प्रेम है; मुझे तुमसे प्रेम है । यह सिर्फ इस बात की खबर है कि उन्हें डर है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि हम यहां जलते ही रहें और दूसरी तरफ पता ही न चले! इधर हम मरते ही रहें और दूसरी तरफ खबर भी न हो ! तो तुम पर ऐसा कभी हुआ ही नहीं। ऐसा कभी होता ही नहीं। प्रेम इतनी बड़ी घटना है, छिपाए नहीं छिपती। तुम्हारा रोआं- रोआं कहने लगता है, तुम्हारे होने का ढंग कहने लगता है। तुम उठते और ढंग से हो, तुम बोलते और ढंग से हो, तुम्हारी आंखें बदल जाती हैं, तुम्हारे चेहरे की आभा बदल जाती है। प्रेम इतने विराट का उतर आना है तुममें कि तुम्हारी सारी सीमाएं डांवाडोल हो जाती हैं। तुम एक मस्ती से भरकर चलते हो, जैसे शराबी चलता है। और जिसने प्रेम की शराब पी ली, फिर उसे शराब की जरूरत नहीं रह जाती। शराब की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि कहीं प्रेम की शराब से चूकना हो गया है। दुनिया में शराब बढ़ती चली जाती है, क्योंकि प्रेम घटता चला जाता है । मस्ती तो चाहिए ही; एक बेखुदी तो चाहिए ही; अन्यथा आदमी जीए कैसे, किस सहारे 250

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