Book Title: Dhammapada 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 267
________________ एस धम्मो सनंतनो फिक्र मत करो। तुमने न जाना था, उसके पहले ही मैंने स्वीकार कर लिया है। मैं उसकी प्रतीक्षा ही कर रहा हूं। तुम्हारे भीतर प्रेम का जन्म हो, यही तो मेरी सारी सतत चेष्टा है। क्योंकि प्रेम से ही परमात्मा का सूत्र हाथ में आएगा। घबड़ाना मत और इस चिंता में मत पड़ना कि मैं स्वीकार करूंगा या नहीं! प्रेम को कब कौन अस्वीकार कर पाया है ? प्रेम को अगर कभी अस्वीकार किया गया है तो प्रेम के कारण नहीं, प्रेम में छिपी वासना के कारण। प्रेम को अगर कभी अस्वीकार किया गया है तो प्रेम के कारण नहीं, किसी और चीज के कारण, जिसने प्रेम का ढोंग बना रखा था। ____ एक युवक मेरे पास आया और उसने कहा, मैं एक युवती के प्रेम में हूं, क्या वह मुझे स्वीकार करेगी? मैंने कहा, मुझे उस युवती का कोई पता नहीं, लेकिन प्रेम का मुझे पता है; अगर प्रेम है तो प्रेम अस्वीकार होता ही नहीं। तू फिर से सोच, प्रेम है? वह थोड़ा डगमगाया; उसने कहा, कह नहीं सकता। तो फिर मैंने कहा, जब तेरे ही पैर डगमगा रहे हैं, अभी तुझे ही साफ नहीं है। तू फिर सोचकर आ। तू सात दिन इस पर ध्यान कर। युवती की तो तू फिक्र छोड़ दे, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। जीवन के नियम के विपरीत तो कोई कभी गया नहीं है। तुझे अगर प्रेम है तो तू फिर से सोचकर आ। सात दिन बाद वह आया और उसने कहा कि क्षमा करें, प्रेम मुझे नहीं है। सिर्फ वासना थी। प्रेम का मैंने नाम दिया था। ____वासना तो स्वीकार हो जाती है—यह आश्चर्य है, चमत्कार है। जब प्रेम अस्वीकार होगा, तो चमत्कार होगा। वैसा चमत्कार कभी हुआ नहीं। __ और मेरे प्रेम में जो पड़ते हैं...मेरे प्रेम में पड़कर तुम पा क्या सकते हो? सिर्फ खो सकते हो। मेरे प्रेम में पड़कर तुम्हें मिलेगा क्या? मिटोगे। मेरे प्रेम में पड़कर तुम विसर्जित होओगे, विलीन होओगे। ____ तो मुझसे तो प्रेम बन ही नहीं सकता, अगर तुम्हारी कोई भी मांग हो, कोई भी कामना हो। मुझसे प्रेम का अर्थ तो प्रार्थना ही है। अगर खबर मिल गई हो, हिम्मत से बढ़े चलो; शायद दो-चार कदम दूर ही मंजिल है। प्रेम से मंजिल बहुत फासले पर है ही नहीं; बस, दो-चार कदम की बात है। याद की रहगुजर जिस पर इसी सूरत से मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते खत्म हो जाए जो दो-चार कदम और चलो मोड़ पड़ता है जहां दश्ते-फरामोशी का एक ऐसा जंगल आता है, जहां सब खो जाता है। मोड़ पड़ता है जहां दश्ते-फरामोशी का । जिससे आगे न कोई मैं हूं न कोई तुम हो 254

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