Book Title: Dhammapada 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 251
________________ एस धम्मो सनंतनो तुम कल्पना करो थोड़ी इस दुखस्वप्न से। जिन्होंने योग की पराकाष्ठा साधी, उनके जीवन में एक ऐसी घड़ी जागते-जागते आती है—यह तो तुम्हारे सोते में घटता है कभी, उनके जागते में घटता है—एक ऐसी घड़ी आती है, कि बस एक कदम और, परमात्मा वह रहा! और वह कदम नहीं उठता। हाथ हिलाना चाहते हैं, हाथ नहीं हिलता। छलांग लगाना चाहते हैं, छलांग नहीं लगती। सांस लेना चाहते हैं, सांस नहीं ले सकते। और जागते में, परिपूर्ण जागरूकता में, बड़े होश में यह घटता है। झेन फकीर कहते हैं-निर्वाण के लिए उनका शब्द है-द लास्ट नाइटमेयर; आखिरी दुखस्वप्न। जागते-जागते! तड़फते हो, चीखते-चिल्लाते हो, कोई सहारा नहीं, सब शून्य में खो जाता है और बस एक कदम! मंजिल के सामने खड़े हो, द्वार खुला है, एक कदम और सब हल हो जाए; मगर यह नहीं उठता, नहीं उठता, नहीं उठता-अकृत आ गया, निर्वाण आ गया। क्या करते हो-जब दुखस्वप्न में ऐसा होता है कि तुम जाग नहीं पाते, आंख खोलना चाहते हो, आंख नहीं खुलती; हाथ हिलाना चाहते हो, हाथ नहीं हिलता-क्या करते हो? कुछ भी नहीं करते। थोड़ी देर तड़फकर शांत रह जाते हो। जैसे ही शांत होते हो, आंख भी खुल जाती है, हाथ भी चल जाता है। ___ बस, ऐसी ही घड़ी अंतिम पराकाष्ठा पर घटती है। पहले बड़ी चेष्टा चलती है, बड़ी चेष्टा चलती है, फिर थककर आदमी गिर जाता है। अपने किए होता ही नहीं तो करोगे भी क्या? अपना किया पूरा का पूरा टूट जाता है, गिर जाता है। और जैसे ही तुम गिरते हो, तुम अचानक पाते हो, मंजिल पर आ गए। जो करने से नहीं हुआ, वह न करने से होता है। ___ भक्त इसको प्रसाद कहते हैं, क्योंकि उनके पास परमात्मा है, उनके पास परमात्मा की धारणा है। वे इसको प्रसाद कहते हैं। वे कहते हैं, अपने किए नहीं होता, वह देता है। बुद्ध इसको प्रसाद नहीं कह सकते, उनके पास भक्त की भाषा नहीं है। वे कहते हैं : अकृत। अब तुम समझ लेना, यह सिर्फ भाषा का भेद है। बुद्ध कहते हैं, अकृत; क्योंकि परमात्मा तो है नहीं, जो दे दे। तुम कर नहीं सकते, कोई देने वाला है नहीं, अब होता जरूर है; तब एक ही उपाय रहा कि बिना किए होता है, अपने आप होता है। भक्त के पास भाषा है। भाषा द्वंद्व चाहती है, द्वैत चाहती है। भक्त के पास द्वैत है-मैं और भगवान। उसको सुविधा है। वह कहता है, मेरे किए नहीं होता, कोई हर्जा नहीं है, तू दे दे; तेरे देने से हो जाता है। बुद्ध अद्वैत की भाषा बोलना चाहते हैं, इसलिए अकृत शब्द का उपयोग किया है। अकृत का अर्थ है : मेरे किए होता नहीं, देने वाला कोई है नहीं; किसी से मांगू, ऐसा कोई है नहीं; किसी को पुकारूं, ऐसा कोई है नहीं-सूना, विराट, शन्य आकाश है-तो चीखता हूं, चिल्लाता हूं, दौड़ता हूं, भागता हूं, सब करता हूं। 238

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