Book Title: Dhammapada 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 257
________________ एस धम्मो सनंतनो विकल्प भी दिया है, मैं तुम्हें विकल्प भी नहीं देता; यह होगा तो बुद्ध पुरुष ही। लेकिन वही एकमात्र ढंग है चक्रवर्ती होने का, और तो कोई ढंग ही नहीं। चाह गई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह जिनको कछु न चाहिए सो ही शहनशाह स्वामी राम अपने को बादशाह कहते थे; था उनके पास कुछ भी नहीं। जब वे अमरीका गए और वहां भी उन्होंने अपनी यह बात जारी रखी, तो यहां भारत में तो चलती है, वहां लोगों को बड़ी हैरानी हई-बादशाह! अमरीकी प्रेसीडेंट भी उनसे मिलने आया था। तो उसने भी कहा कि जरा और तो सब ठीक है, आपके पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता, आप बादशाह कैसे? उन्होंने कहा, इसीलिए! इसीलिए कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। चाह मई, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह जिनको कछु न चाहिए सो ही शहनशाह ___ मैं सम्राट हूं, क्योंकि मेरे पास कुछ भी नहीं। जिनके पास कुछ है, उनके पास सीमा है; उनके साम्राज्य की परिधि है। जिनके पास कुछ भी नहीं है, उनके पास शून्य का साम्राज्य है, असीम साम्राज्य है, वे चक्रवर्ती हैं। 'गांव हो या वन, नीची भूमि हो या ऊंची, जहां कहीं अर्हत विहार करते हैं, वही भूमि रमणीय है।' ___‘ऐसे रमणीय वन हैं, जहां सामान्यजन नहीं रमते। वीतराग पुरुष ही वहां रमते हैं, जिन्हें काम-भोगों की तलाश नहीं रहती।' __ पर्त दर पर्त सौंदर्य छाया है चारों तरफ। तुम जो देखते हो, वह तुम्हारी सीमा की खबर है; उससे अस्तित्व का कुछ संबंध नहीं। तुम्हें जो दिखाई पड़ता है, वह तुम्हारी दृष्टि की खबर है। यहां पर्त दर पर्त, फूल के भीतर फूल, किरणों के भीतर किरणें छिपी हैं। यहां रूप के भीतर रूप, और रूपों के अंततः अरूप छिपा है। यहां सौंदर्य ही सौंदर्य की वर्षा हो रही है। अगर तुम वंचित रह जाते हो तो कहीं भूल तुम्हारी है। ___ यहां बूंद के पीछे बूंद, और सारी बूंदों की पंक्तियों के, अनंत पंक्तियों के पीछे सागर छिपा है। कितना तुम पाते हो, यह तुम पर निर्भर है कि कितना तुम पी सकते हो! तुम्हारा पात्र कितना है! मेघ तो बरसते हैं, असीम को बरसा जाते हैं, तुम्हारे पात्र में लेकिन उतना ही पड़ता है, जितना तुम्हारा पात्र सम्हाल पाता है। __ जिसे तुमने पत्थर-कंकड़ों का जगत समझा है, वहीं परमात्मा भी छिपा है। और जहां-जहां तुम्हें सीमा दिखाई पड़ती है, वहीं असीम का नर्तन चल रहा है। जहां तुम्हें स्वर सुनाई पड़ते हैं, वहीं उस शून्य का नाद भी गूंज रहा है। . ___ तुम जैसे-जैसे सूक्ष्म होने लगोगे, वैसे ही सूक्ष्मतर सौंदर्य की पर्ते उघड़ने लगती हैं। तुम जितने स्थूल होते चले जाते हो, उतना ही जीवन कुरूप होता चला जाता है। _ 'रमणीय ऐसे वन हैं, जहां सामान्यजन नहीं रमते।' 244

Loading...

Page Navigation
1 ... 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314