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एवं १७वीं शताब्दी तक अपना अस्तित्व टिकाये रखकर अन्त में विविध रूप में विनाश को प्राप्त ये महालय अपने अपार वैभव की स्मृति छोड़ते गये, ऊंचे अडिग खडे उनके खंडहरों के द्वारा। * बुलावे गुफाओं गिरि-कन्दराओं के
इन सभी के बीच महत्वपूर्ण हैं-अनेक जिनालयों के खंडहरों वाले 'हेमकूट,' 'भोट' एवं 'चित्रकूट' के, “सद्भक्त्या स्तोत्र'' उल्लिखित प्राचीन, पहाडी जैन तीर्थ । उनका इतिहास, भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के समय से लेकर ईस्वी सन् की सातवीं सदी तक एवं क्वचित् क्वचित् उसके बाद तक भी जाता हुआ दिखाई देता है उक्त 'हेमकूट' के पूर्व मे एवं उत्तुंग खडे “मासंग” पहाड के पश्चिम में हैं-गिरिकन्दराएँ, शिलाएँ, जलकुंड, एवं खेतों से भरा हुआ, किसी परी-कथा की साकार सृष्टि का-सा 'रत्नकूट' पर्वतिका के शैल प्रदेश का विस्तार ।
अनेक साधकों की विद्या, विराग एवं वीतराग की विविध साधनाओं की साक्षी देने वाली और महत्पुरुषों के पावन संचरण की पुनीत कथा कहने वाली रत्नकूट की ये गुफाएं, गिरि कन्दराएं एवं शिलाएं मानो भारी बुलावा देकर 'शाश्वत की खोज" मे निकले हुए साधना-यात्रियों को बुलाती हुई प्रतीत होती हैं, अपने भीतर संजोए रखे हुए अनुभवी जनों के सदियों पुराने ; फिर भी चिर नये ऐसे जीवन