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गीत पूरा हुआ, सितार नीचे रखा, परंतु मेरी भावदशा वैसी ही बनी रही। मैं धन्य हुआ। सबसे अधिक प्रसन्न था मैं । सहजानदघनजी ने सबकी प्रसन्नता व्यक्त की एवं उठ खड़े हुए...... उनका आशीर्वाद पाकर मैंने लोभवश उनसे मुलाकात का समय ले लिया, ताकि मैं उनकी अंतर्दशा का संस्पर्श कर सकूँ । उस समय रात के तीन बजे थे, पर मैं थका न था और अपूर्व अवसर की उस जाग्रतावस्था में रहना चाहता था, अत: उस समूह से दूर एक एकांत, असंग शिला पर ध्यानस्थ हुआ- उस पुण्यभूमि की चांदनी एवं नीरवता में शून्यशेष आत्मदशा का जो आनंद पाया. वह अवर्णनीय, अपूर्व था । ध्यान के अंत मे उसे अपनी ‘स्मरणिका' में शब्दबद्ध करने का प्रयास (वृथा प्रयास ! क्या उसे शब्दों में बांधा जा सकता है ? ) क्रिया, शरीर को थोडा आराम दिया एवं सुबह सहजानंदघनजी से मिलने अंतर्गुफा की ओर चला।
मुनिजी गुफामंदिर में बैठे थे। गुणग्राहिता की दृष्टि से उनसे कुछ पाने एवं उनका साधनाक्रम समझने, मैंने घंटों उनसे चर्चा की। इस चर्चा से मैंने उनके गहन ज्ञान, उनकी आत्मानुभूति, पराभक्ति, उन्मुक्तता, प्रेम, बालक की-सी सरलता एवं उच्च ज्ञान दशा का परिचय प्राप्त किया। उनसे प्रेरणा भी मिली. समाधान भी। काफी समय व्यतीत होने पर भी उन्होंने अत्यंत उदारता एवं अनुग्रहपूर्वक प्रश्नों को सुलझाया । इससे उनकी अंतर्दशा - तत्त्वदृष्टि एवं बहिसधिना का दर्शन हुआ। प्रेमवश उन्होंने अपनी अंतर्गुफा की झलक
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