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थीं ........ ... उनके इस बंधन से छूटना आसान न था...... उस चिर-परिचित-से निमंत्रण को टालना संभव न था......... पर अंत में निरुपाय हो वहां से चला - यथासमय पुन आने के संकल्प के साथ, कर्त्तव्यों की पूर्ति कर ऋणमुक्त होने । श्रीमद् के, स्वयं की अवस्था के सूचक ये शब्द, जैसे मेरी ही साक्षी दे रहे थे :
" अवश्य कर्मनो भोग छे; भोगववो अवशेष रे, तेथी देह एक ज धारीने, जाशुं स्वरुप स्वदेश रे,
धन्य रे दिवस आ अहो।" परंतु एक ही देह धारण-कर स्वरुप-स्वदेश, निज निकेतन पहुँचने का सौभाग्य उनके-से भव्यात्माओं का ही था, क्योंकि वे जीवन-मरण के चक्कर से मुक्त हो चुके थे; जब कि मुझ-सी अल्पात्मा को कई भवों का पंथ काटना शेष था ! परंतु गुफाओं के साद, गुफाओं के बुलावे मुझे हिंमत दे रहे थे। “सर्वजीव हैं सिद्ध सम, जो समझें, बन जायँ ।" (श्रीमद् ) साथ ही स्वयं सिद्धि की क्षमता की ओर निर्देश कर रहे थे; निश्चितता एवं निष्ठापूर्वक शीघ्रही वापस आने का निमंत्रण दे रहे थे। मैं जानता था कि इस निमंत्रण को मैं ठुकरा नहीं पाऊगा अतः यह संकल्प करते हुए कि एक दिन इन्हीं गुफाओं में साधना हेतु निवास करुंगा, मैं निकल पड़ा । मेरे साथ भव्य, भद्रह्यदय भद्रमुनिजी, भक्तिसभर माताजी, ओलिये खंगारबापा एवं मस्त मौनी आत्माराम के आशीर्वाद थे; इस आशीर्वाद
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