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॥ ॐ सहजात्म स्वरूप परमगुरु । श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, रत्नकूट, हाम्पो : जहाँ आहलेक जगाई
___ एक परम अवधूत आत्मयोगी ने !
उन्मुक्त आकाश, प्रशांत प्रसन्न प्रकृति, हरियाले खेत, पथरीली पहाड़ियाँ, चारों ओर टूटे-बिखरे खंडहर और नीचे बहती हुई प्रशमरस-वाहिनी-सी तीर्थसलिला तुंगभद्रा-इन सभी के बीच, 'रत्न-कूट' की रत्न-गर्भा पर्वतिका पर, गिरिकंदराओं में छाया-फैला यह एकांत आत्मसाधन का आश्रम, जंगल में मंगलवत् !
कुछ वर्ष पूर्व की बात है।
मध्यान्तराल में दूषित बनी हुई इस पुराण प्राचीन पावन धरती के परमाणु बुला रहे थे उसके उद्धारक ऐसे एक आत्मवान योगीन्द्र की और चाह रहे थे अपना पुनरोत्थान. . !
तीर्थकर भगवंत मुनिसुव्रत स्वामी और भगवान राम के विचरण की, रामायण-कालीन वाली सुग्रीव की यह किष्किन्धा नगरी और कृष्णदेवराय के विजयनगर साम्राज्य की जिनालयों-शिवालयों वाली यह समृद्ध रत्न-नगरी कालक्रम