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देह छतां जेनी दशा, वर्तें देहातीत,
ए ज्ञानीना चरणमां, हो वंदन अगणित ।"
मेरी यह साधना - यात्रा बाहर से समाप्त हो चुकी है... परंतु आंतरिक रूप में जारी है। आज मैं स्थूलरूप से उस योग भूमि से दूर हूँ, और अब भी दूर जा रहा हूँ, परंतु रत्नकूट की गुफाओं के वे गंभीर ज्ञानघोष मुझे कर्म के प्रत्येक संचार में, योग के प्रत्येक प्रवर्तन में, विवेक एवं विशुद्धि, अनासक्ति एवं जागृति बनाये रखने की प्रेरणा दे रहे हैं, नित्य नैमित्तिक कर्त्तव्य एवं जीवन व्यवहार के बीच 'स्वरूप' से मेरा अनुसंधान करा रहे हैं :
"विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् ........" "पश्य पश्य स्वरूपम्. ...."
" जिसने आत्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया........ ।”
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