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का प्रतीक था वह दिव्य ' वासक्षेप' जिसे मुनिजी ने अत्यंत प्रेम से मुझे दिया था! मेरे मस्तक पर मढ़ दिया था !!
अपनी दिवस-यात्रा पूरी कर सूरज दूर क्षितिज में ढल रहा था; धरती से विदा हो रहा था और में अपनी साधना यात्रा पूरी कर इस तीर्थ भूमि से विदा हो रहा था; आकाश विविध रंगों से भर गया था ....... मंद-मंद समीर बह रहा था ... गुफा मंदिर में से मेरे ही गाये गीत की प्रतिध्वनि उठ रही थी :
" अह परम पद प्राप्तिनुं कर्यु ध्यान में, गजा वगर ने हाल मनोरथ रूप जो; तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभु-आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरुप जो
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?" — अपूर्व अवसर' की प्रतीक्षा की अभीप्सा से परिपूर्ण यह प्रतिध्वनि मेरे कानों में गूंजती हुई, अंतर में अनुगूंज जगा रही थी, तो बाहर से इस सबको परिवृत्त - Superimpose - कर रहा प्रचंड आदेश सामने की एक उपत्यका में से आ रहा थाः
" विरम विरम संगान् , मुञ्च मुञ्च प्रपंचम् , विसृज विसृज मोहम् , विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् , कलय कलय वृत्तम् , पश्य पश्य स्वरूपम् , भज विगत विकारं स्वात्मनात्मान मेव .....!"