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आत्म-वैभव-संपन्न हो उनका अवलंबन लेना श्रेयस्कर है । यह रहस्यार्थ है।
" ऐसी भक्तात्मा का चिंतन एवं आचरण विशुद्ध हो सकता है, अतएव भक्ति, ज्ञान एवं योग साधना का त्रिवेणी संगम संभव होता है। ऐसे साधक को भक्ति-ज्ञान शून्य मात्र योग-साधना करनी आवश्यक नहीं। दृष्टि, विचार एवं आचार शुद्धि का नाम ही भक्ति , ज्ञान एवं योग है और यही अभेद ' सम्यम् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' है। बिना पराभक्ति के, ज्ञान एवं आचरण को विशुद्ध रखना दुर्लभ है ; इसका उदाहरण हैं आचार्य रजनीश। अतएव आप धन्य हैं, कारण, निज चैतन्य के दर्पण में परम कृपालु की छवि अंकित कर पाये हैं। ॐ ।"
समग्रसाधना – सम्यग् साधना की उनकी यह समग्र दृष्टि मुझे चिंतनीय, उपादेय एवं प्रेरक प्रतीत हुई। इस पत्रने उसका विशेष स्पष्टीकरण किया, परंतु प्रत्यक्ष परिचय में ही वह बलवती और दृढ बन गयी थी ............... इसके प्रति मैं इतना आकर्षित हुआ कि वहां से हटने का मन न हुआ..... अंत में उठना ही पड़ा ....... __और विदा की बेला में गूंज उठे गुफाओं के साद ....... इस समय चारों ओर फैली गिरि-कदराएं, गुफाएं एवं शिलाएं जैसे मेरी राह रोक रहीं थीं एवं प्रचंड प्रतिध्वनि से मेरे अंतलोक को झकझोर रहीं थीं; कानों में दिव्य संगीत भर रहीं