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साकार उपासना का साध्य बिंदु है, वहीं सत्यसुधा है । हृदयमंदिर से सहस्रदल कमल में उसकी प्रतिष्ठा कर, वहीं लक्ष्यवेधी बाण की तरह चित्तवृत्ति प्रवाह का अनुसंधान बनाये रखना, यही पराभक्ति या प्रेमलक्षणा भक्ति है। इसी अनुसंधान को शरण कहते हैं-शर तीर। इस शक्ति से स्मरण भी बना रहता है । कार्यकारण न्याय से शरण एवं स्मरण की अखंडता सिद्ध होती है; संपूर्ण आत्म-प्रदेश पर चैतन्य-चांदनी छा जाती है; सर्वांग आत्मदर्शन एवं देहदर्शन की भिन्नता स्पष्ट होती है; एवं आत्मा में परमात्मा की छवि विलीन हो जाती है। आत्मा-परमात्मा की यह अभेद की दशा ही पराभक्ति का अंतिम बिंदु है । वही वास्तविक सम्यग् दर्शन का स्वरूप है : "वह सत्यसुधा दरसावहिंगे,
चतुरांगल है दृग से मिल है, रस देव निरंजन को पिबही, - गही जोग जुगोजुग सो जीव ही ।
"आँख एवं सहस्रदल कमल के बीच चार अंगुल का अंतर है। उस कमल की कणिका में चैतन्य की साकार मुद्रा वही सत्यसुधा है, अपना उपादान आप है। जिसकी आकृति बनी है, वह बाह्यतत्त्व निमित मात्र है। उनकी आत्मा में आत्म-वैभव के जितने अंश का विकास हुआ हो, उतने अंश में साधकीय उपादान के कारण का विकास होता है एवं वह कार्यान्वित होता है । अतएव निमित्त-कारण, सर्वथा विशुद्ध,