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* जब “मौन” महालय “मुखर" हुए ..........
भोजन इत्यादि के बाद मैं निकट के ऐतिहासिक अवशेष देखने निकल पड़ा। विजयनगर - साम्राज्य के ६० मील के विस्तार में ये अवशेष फैले हैं - महालय, प्रासाद, स्नानगृह, देवालय एवं ऊँचे शिल्पसभर गोपुर; श्रेणीबद्ध बाजार, दुकानें, मकान; राज-कोठार एवं हस्तिशाला – इन पाषाण अवशेषों में से उठ रही ध्वनि सुनी। एक मंदिर के प्रत्येक स्तंभ में से विविध तालवाद्यों के स्वर सुनाई देते थे।
दूर दूर तक घुमकर ढलती दोपहरी के समय 'रत्नकूट' को लौटा और एक शिला पर खड़ा होकर उन अवशेषों को देखता रहा . . . . . . ..
वे मूक पत्थर एवं मौन महालय — मुखर' हो बोल रहे थे, अपनी व्यथाभरी कथा कह रहे थे . मेरे कान और मेरी आँखें उनकी ओर लगी रहीं ......... ....... उन पाषाणों की वाणी सुनकर मैं अंतर्मुख हुआ ............ कई क्षण इसी नीरव, निर्विकल्प शून्यता में बीत गये ...... .... अंत में जब बहिर्मुख हुआ तब सोचने लगा - " कितनी सभ्यताओं का यहाँ निर्माण एवं विनाश हुआ; कितकितने साम्राज्य यहाँ खड़े हुए और अस्त हो गये !! कितने राजा – महाराजा आये और चले गये !!!
"ये टूटे खंडहर एवं शिलाएँ इसके साक्षी हैं । वे यहाँ हुए उत्थान-पतन का संकेत देते हैं और निर्देश करते हैं जीवन
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