Book Title: Dakshina Path Ki Sadhna Yatra
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 35
________________ की क्षण-भंगुरता की ओर; 0zymandias of Egypt की पाषाण मूर्ति की तरह उस अरूप, अमर, शाश्वत आत्मतत्त्व का भी संदेश दे जाते हैं, जिसका कभी नाश नहीं होता, और जिसे कई महापुरुषों ने इसी पुण्यभूमि पर प्राप्त किया था......!" ध्यानारूढ़ योगियों की चरण रेणु से धूसरित "शिलाओं के चरण पखारता, कलकल निनाद करता, हस्ति-सी मंथर, गंभीर गति से बह रहा है-तुंगभद्रा का मंजुल नीर! उनके अविरत बहाव में से घोष उठ रहा है - " कोऽहम्? कोऽहम्?" " मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? " और निकट की शिलाओं में से प्रतिघोष उठता है - " सोऽहम् ........... सोऽहम् . ......... शुद्धोऽहम् ........... बुद्धोऽहम् ..... ...... निरंजनोऽहम् ............ सच्चिदानंदी शुद्ध स्वरुपी अविनाशी मैं आत्मा हूँ.........आनंदरुपोऽहम् ........ सहजात्मरुपोऽहम् ।” 'शाश्वत' की ओर संकेत कर रहे इन घोषों - प्रतिघोषों को उन — विकृत ' खंडहरों ( और अब भी ऐसे निष्प्राण भवन खड़े कर रहे नशोन्मत्त सताधीशों ) ने सुना या नहीं, इसका पता नहीं, परंतु मेरे अंतर में यह घोष उतर चुका था, गूंज रहा था, मैं आनंदित हो रहा था, शून्यशेष हो रहा था, मेरे शाश्वत आत्मस्वरुप की विकल्परहित संस्थिति में ढल रहा था !

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