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गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' का एक पद याद आता है, जिसका भाव है, “एक गीत.. ..फक्त एक गीत अंतर से ऐसा गाऊँ कि राजाओं का राजा भी उसे सुनने नीचे उतर आये ।' तब ऐसी पराभक्ति का आनंद उठाने देवतागण भी आ जायें तो क्या आश्चर्य ? माताजी की ऐसी भक्ति का, 'वासक्षेप' द्वारा वंदन, अनुमोदन, अभिनंदन करते हुए देवता विदा होते हैं।
माताजी की इस उच्च साधना-भूमि का परिचय प्राप्त कर हम भी धन्य हुए।
माताजी, भद्रमुनि के संसारपक्ष की चाची हैं। साधना हेतु वर्षों पूर्व वे यहां आयीं। स्वामी श्री की सेवा-शुश्रुषा का लाभ वे ही लेती हैं। विशेष रूप से आश्रम की बहनों एवं भक्तों के लिए छत्र-छाया बनी रहती है।
इनके अलावा भी अन्य आबाल-वृद्ध, निकट से या दूर से आये, जैन-जैनेतर- सब प्रकार के आश्रमवासी यहां रहते हैं; एक दूसरे से भिन्न ; अंदर से और बाहर से निराले । ... मैंने उन सब को देखा- सृष्टि की विविधता एवं विधि की विचित्रता, कर्म की विशेषता एवं धर्म-मर्म की सार्थकता के प्रतीक-से वे साधक, जिनका एक ही गंतव्य था- आत्मप्राप्ति । उन्हें देखकर मेरे मानस-पटल पर श्रीमद् का यह वाक्य उभर आता है :
"जातिवेश नो भेद नहीं; कह्यो मार्ग जो होय ।"