Book Title: Chaityavandanbhashyam
Author(s): Devendrasuri, Dharmkirtisuri, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 437
________________ हेतुद्वादशकम् श्रीदे चैत्यश्रीधर्म० संघाचारविधी ॥४०९॥ दिक्खं पवजइ महप्पा । चिइवंदणाइविहिणा अणसणसुविसुद्धपरिणामो ॥२३॥ पंचनमुक्कारपरो भुवणस्मवि विम्हयं जणेमाणो। मरिऊणं सिौरेगुत्तो जाओ अमरो तइयकप्पे ॥९३|| कीरसुरोचि तहिं चिय पत्तो से काउ देहसकारं। चविउतओ विदेहे दोऽवि |लहिस्संति सिवसुक्खं ॥ ९४ ।। इत्थं महीधरतनूरुहवृत्तमेतच्चेतश्चमत्कृतिकरं भविका! निशम्य । क्लिष्टाष्टकमहतयेऽष्टनिमित्तशुद्ध, सच्चैत्यवंदनविधौ सततं यतध्वम् ॥१५॥ इति श्रीगुप्तश्रेष्ठिकथा । इत्युक्तं 'निमित्त'त्ति सप्तदशं द्वारं, सांप्रतं 'बार हेऊय'त्ति अष्टादशं द्वारं व्याख्यानयन्नाह चउ तस्सउत्तरीकरणपमुह सद्धाइया य पण हेऊ । वेयावच्चगरत्ताइ तिनि इय हेज्बारसगं ॥५३॥ चत्वारो हेतवः तस्योत्तरीकरणप्रमुखाः 'तस्स उत्तरीकरणेणं १ पायच्छित्तकरणेणं २ विमोहीकरणेणं ३ विसल्लीकरणेणं ४-IVA तिरूपा, कायोत्सर्गसिद्धये भवंतीति शेपः, तत्र 'तस्सालोयणपडिकम्मणमाइणा सोहियाइयारस्स । उत्तरकरणाईहिं हेऊहिं करेमि उस्सग्गं ॥१॥ पिंडीबंधणलेवाइ जह सलागाइसोहियवणस्स । ण्हाणाइगयमलस्सव जहा विलेवाइसक्कारो ॥२॥ आलोयणाइणा तहऽसुद्धइयारस्स उत्तरीकरण कीरइ पच्छितेण व जह सगडरहंगगेहाणं ॥३॥ पच्छित्तं पुण उस्सग्गलक्षणं पंचमर इह विसोही। अइयाराण अभावो ३ मायाइ विणा विसल्ला४॥ इह हेउहेउमत्तं नेयं जह होइ उत्तरीकरणं । पच्छत्तेणं तंपिहु विसोहिओसा विसल्लते ॥५॥ तथा 'श्रद्धादिकाः' सद्धाए मेहाए घिईए धारणाए अणुप्पेहाए वडमाणीए'इत्यात्मका: पंच हेतवः, तत्र “सद्धा निओमिलासो न पराणुग्गहबलमिओगाई । मेहा हेओवादेयबुद्धिपडया न य जडत्वं ॥१॥ मेहा वा मजाया जिणभणिया नासमंजसपि ॥ मणपणिहाणा पीई घिई न रागाइआउलया ॥२॥ धारण अरिहाइगुणाविस्सरण न उण सुन्नचित्तत्तं । अणुपेहा ANDAN ॥४०॥

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