Book Title: Chaityavandanbhashyam
Author(s): Devendrasuri, Dharmkirtisuri, 
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 467
________________ श्रीदे० चैत्य० श्री. धर्म० संघाचारविधौ ॥४३९॥ सिरिविजय सेणमुणिवरपासे पडिवज्जइ पवज्जं ||३७|| चोइज्जतो रूसइ दुम्मेहो दुम्नुहो सयंमइओ । माणी छिप्पेही निरोवयारी अणुसइल्लो ॥ ३८ ॥ वंको अवनवाई न करेइ तपि मंदपरिणामो । त्रिणयवहुमाणहीणो तो सो गुरुणा इमं भणिओ ॥ ३९ ॥ " गुण रिद्धी दूरं वड़ियावि अविणयपवणपडिहणिया । इक्कपरचिय पुत्तय ! पणस्सए दीवयसिहव्व ॥ ४० ॥ नीहारहारधवलोऽवि वच्छ ! सच्छोऽवि सुगुणसमुदाओ । विणरण विणाऽवयणं व नयणरहियं न सोहेइ ॥४१॥ अचंतपियोऽवि वज्जिज्जइ पुरिसो विणयवजिओ दूरे । पवरमणिभूसणेवि य सुजणेहिं गुरुभुयंगुव्व ॥ ४२ ॥ इय दुणियत्तणदोसानि वहमवलोइऊण बुद्धीए । वच्छ ! रमिज्जसु विणए समत्थकल्लाणकुलभवणे ॥ ४३ ॥ विणयाओ हुंति गुणा गुणेहिं लोगोऽणुरागमुव्वहह । अणुरत्तसयललोयस्स हुंति सव्वाउ सिद्धीओ ॥४४॥ किंच - विनया नाणं नाणाउ दंसणं दंसणाउ चारित्तं । चारित्ताओ मुक्खो मुक्खे सुक्खं अणायाहं ॥ ४५ ॥ तथा चडइ नर्मताण गुणो आरूढगुणाण होइ टंकारो। चावाणं व नराणं गुणटंकाराऽनवद्वाणा |||४६ ॥ इय सो गुरुणा करुणापरेण भणिओऽवि कम्मगुरुपाए । मुंचइ न निरोणामत्तणं सया निरणुता वित्ता ॥ ४७ ॥ अष्णदिणे सहसा तेण मग्गिए अणसधे गुरू भणइ । पायं न पायमुचियं असं लिहियदव्वभावार्ण ॥४८॥ भणइ इमो संलेहियतणूण कीवाण सत्तरहियाणं । अणसणकरणं मयमारणंति नहु तेण मह कज्जं ॥ ४९ ॥ एवं दुगंपि समगं करेमि पिच्छंतया हवह तुम्भे । इय मणिरो पुण गुरुणा करुणानिहिणा निसिद्धोवि ॥ ५० ॥ सयमेव चचभत्तो सहसा खिजंतधाउसंदोहो । तण्हाछुहसंतत्तो अप्पिड़ी वणयरो जाओ ॥ ५१ ॥ भणियं च - " रज्जुग्गहणे विसभक्खणे य जलणे य जलपवेसे य। तण्हाछुहाकिलंता मरिऊण हवंति कान्तिश्रीकथा ॥४३९॥

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