Book Title: Bhaktamar Stotra Satikam
Author(s): Mantungasuri, Gunakarsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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________________ जक्ता पत्रस्थजलाबिंदुर्मुक्तागयां धत्ते, तथा तव प्रनावगुणाश्रयणास्तवोऽपि विचित्तानंद कर्तेति वृत्तगर्भामी र्थः // 7 // अथ सर्वइनामग्रहणमेव विघ्नहरमाह // मूलम् ॥-वास्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं / त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति // दुरे 21 सहस्रकिरणः कुरुते प्रनैव / पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि // ए॥ व्याख्या हे अष्टादश दोषनि शन! यस्तसमस्तदोष निर्मूलितनिखिलदुषणं तव स्तवनं गुएरहस्योत्कीर्तनमास्तां तिष्टतु दूरे. स्तवमहिमा तु महीयान वर्तते, त्वत्संकथा त्वत्संबंधी संलापोऽपि त्वद्विषयिणी पूर्वनवसंबंधिनी वापि जगतां लोकानां दुरितानि पापानि विनानि वा इंति, उक्तं च-चिरसंचियपावपणासणी. 3 / नवमयसहस्समहणीए // चनवीसजिणविणिग्गय-कहा वोलंतु मे दीहा // 1 // श्रौपम्यं यथा-सहस्रकिरणः सूर्यो दूरे तिष्टतु, प्रभव थरुणबायैव पद्माकरेषु सरस्सु जलजानि मुकुलरूप कमलानि विकाशभांजि स्मेराणि कुरुते, यदा सूर्योदयात्पूर्वप्रवर्तिनी प्रजातप्रभा पद्मविकाशिनी स्यातदा सूर्यस्य किमुच्यते ? तथा जगवणोत्कीर्तनस्तवमादाम्यं न कश्चिदक्तुमटां, जिननाथनामय हसंकथैव सर्वदुरितनाशिनीति वृत्तार्थः. थत्र मंत्रो यथा-ॐ हौं जूं श्रीचक्रेश्वरी मम रदां कुरु / /

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