Book Title: Bhaktamar Stotra Satikam
Author(s): Mantungasuri, Gunakarsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 25
________________ सटीक 3 जक्ता, रज्जुरधो मुक्तः. कथमपि कूपमेखलायां स्थितः स्तवं सस्मार. ततश्चकादेव्या पृष्टे कृत्वा स निष्का- || मितः. निःस्वस्य तस्य तया स्नाष्टकं वितीर्ण. ततोऽसौ सान लाकं वजन् कांतारे समुचितां मि. लघाटी निर्धाटयामास स्तवस्मरणात. एकाकिने निजले वने भ्रमते तस्मै तृषितायाष्टमनवमवृत्तगु. नप्रांते देव्योदकं दत्तं. एवं सर्वाणि कष्टानि हत्वा स पुरं पाप. उक्तं च-वने रणे शत्रुजला. मिमध्ये / महार्णवे पर्वतमस्तके वा / / सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा / रदंति पुण्यानि पुरा कृतानि / / // 1 // रत्नाष्टकेन तस्य श्री॥ता. ततोऽसौ चक्रेश्वरीपार्थालोकचम कृतये एकदिनमध्ये जैन प्रासादं कारयामास. एवं स केशवश्चिरं सुखमनुजवन धर्ममाराधयामाम. इति चतुर्थी कथा. अय जिनस्तु. निफलमाह // मूलम् // - नास्त्यड्तं जुवन ऋषणत नाथ / जनैगुण वि भवंतमभिष्टुवंतः / / तुब्या न वंति भवतो ननु तेन किं वा / त्याश्रितं य ह नात्ममम कराति // 10 // व्याख्या-हे जुवन चषणत! तशब्दोऽत्रोपमावाची, हे विश्वममनसमान! नाय प्रनो! तर्जातैर्विद्यमानैर्गुणैर्छवि पृथिव्यां भवंतं त्वामनिष्टुवंतः स्तुवंतो जना नवतस्तव तुल्याः समा जति. एतन्नात्यकृतं नातिचिः ||

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