Book Title: Bhaktamar Stotra Satikam
Author(s): Mantungasuri, Gunakarsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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________________ भक्ता-|| राजानं गुरुपार्श्वे धर्ममश्रावयत , यथा-जैनो धर्मः प्रकटविभवः संगतिः साधुलोके। विद्गोष्टी वच // सर नपटुता कौशलं सत्कलासु // साध्वी लक्ष्मीश्वरणकमलोपासनं सद्गुरूणां / शुलं शीलं मतिविमल. ता प्राप्यते नाल्पपुण्यैः // 1 // देवगुरुधर्मरूपं रत्नत्रयं श्रुत्वा जिनधर्मभागनु महीधरमहीशः, लक्ष्म| णोऽपि लदीवान् सर्वार्चनीयश्चात . नक्तं च-महिमानं महीयांसं / संगः सूते महात्मनां / / मंदा. किनीमृदो वंद्या-त्रिवेदीवेदिनामपि // 1 // श्त्येकादशमी कथा // 11 // अथ शानदारेणा न्यदेवान विपति // मूलम् ॥-झानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं / नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु // ते. जः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं / नैवं तु काचशकले किरणाकुनेऽपि // 20 // व्याख्या हे लोकालोकप्रकाशकझान! यथा येन प्रकारेण कृतावकाशमनंतपर्यायात्मकवस्तुनि विहितप्रकाशं झा नं सम्यग त्वयि विभाति, तया तेन प्रकारेण हरिहरादिषु विष्णुरुदब्रह्मस्कंदबुझादिषु नायकेषु स्व स्वमतपतिषु एवंविधं ज्ञानं न वर्तते, एवमवधारणे वा, अवधारितं त्वयि. तेषु त्वज्ञानमेव, ते ह्या. त्मानं कदाचिन्यदर्शननंग्या नायकत्वेन ख्यापयंतोऽपि विभंगशानिन एव, तेषां ज्ञानं वेदादौ व्य.

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