Book Title: Bhaktamar Stotra Satikam
Author(s): Mantungasuri, Gunakarsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 31
________________ सटीक जक्ता स्वं स्वेचं मुंदवेति गझोक्तं, गुरुनृपवाग्भटादयो रंजिताः कपर्दिनं तुष्टुवुः. सोऽपि जक्तामरस्तवप्रः // भावं वर्णयामास. चिरं किवसुखसहितः सोऽपि जिनधर्म प्रभावयामासेति पंचमी कथा ॥अथ भ. गवडूपवर्णनायाह // मूलम्-यैः शांतगगरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं / निर्मापितसिवनैकवाखामन्त // तावंत ए. व खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां / यत्त समानमपरं न हि रूपमस्ति // 12 // व्याख्या-हे त्रिभुवनैक खादामत! हे लोक्याप्रशिरोगर्नमाव्यतुल्य! शिरोन्यस्तं पुष्पाचरणं ललाममुच्यते. यैः परमा. एगिर्दलिर्निर्माणकमला त्वं निर्मापिनः कृतः, किंतैः? शांता प्रशमं गता रागस्यानुगगस्य रु चिः कांतिर्येभ्यस्तै नश तैः, गगसहचरितत्वाद् द्वेषपरिग्रहः. अथवा शांतनामा नवमो रसस्तस्य रागो मावस्तस्य रुचि गया येषु तैः, खलु निश्चितं तेऽप्यणवः परमाणवस्तात एव, जगपनि र्माणप्रमाणा एव प्रवर्तते, यासासारापृथिव्यां अपीठे तव समानं तुख्यमपरमन्यपं न ह्यस्ति, | न विद्यते, जिनरूपझानगुणा अनुत्तरसुरवाप न प्राप्ताः, धौपम्याथै कविशिस्तीपं चिकीर्ष|| वोऽमरा अपि न शक्ताः. उक्तं च-सवसुरा जय रूपं / अंगुठपमाणयं विनविङा / / जिणपायंगुठं /

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