Book Title: Bhagwati Sutra Part 07
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 723
________________ प्रमेयचन्द्रिका टी००१ उ०३१ सू०३ अश्रुत्वाऽवधिज्ञानिनो लेश्यादिनिरूपणम् ७०३ लोभेषु कषायेषु भवति, तथाहि अवधिज्ञानत्वेन परिणतविभङ्गज्ञानस्य चरणप्रतिपन्नत्वेन तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात् संज्वलनात्मका एव क्रोधादयो भवन्ति । गौतमः पृच्छति - ' तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? ' हे भदन्त ! तस्य खलु अवधिज्ञानप्रतिपन्नस्य पुरुषस्य कियन्ति अध्यवसानानि =अध्यवसायाः प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह - ' गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नत्ता ' हे गौतम ! तस्यावधिज्ञानं प्रतिपन्नस्यासंख्येयानि असंख्यातानि अध्यवसानानि=अध्यवसायाः प्रज्ञप्तानि । गौतमः पृच्छति - ' ते णं भंते ! पसत्था, अपसत्था ? ' हे भदन्त ! ते 1 ज्ञानवाला जीव चार संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया और लो भकषायों में होता है इसका तात्पर्य ऐसा है कि विभंगज्ञानी का विभंगज्ञान जघ अवधिज्ञानरूप में परिणत हो जाता है तब वह अवधिज्ञानी चारित्र को धारण करने से उसी काल में चरण युक्त होने के कारण संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया और लोभकषायवाला बना रहता है क्यों कि सकलचारित्र को संज्वलन कषायें घातती नहीं है। इनके उदय में ही सकलचारित्र होता है । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं ( तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता !) जो पुरुषविभंगज्ञान से अवधिज्ञान को प्रतिपन्न हुआ है उनके कितने अध्यवसाय होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं(असंखेज्जा अज्जवसाणा पन्नत्ता ) हे गौतम ! उसके असंख्यात अध्य वसाय होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवों का कथन है । સંબધી ક્રોધ, માન, માયા અને લેાભ આ ચાર કષાયેાવાળે હાય છે તેનુ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે સમજવુ. વિભ'ગજ્ઞાનીનું વિભ’ગજ્ઞાન જ્યારે અવધિજ્ઞાનરૂપે પરિણત થઈ જાય છે, ત્યારે તે અવધિજ્ઞાની ચારિત્રને ધારણ કરવાથી એજ કાળે ચરણયુક્ત હાવાને કારણે સ જ્વલન સ બધી ક્રોધ, માન, માયા અને લાભરૂપ કષાયાવાળા ખની રહે છે, કારણ કે સકલચારિત્રને સજવલન કષાયેા ઘાતતી નથી તેમના ઉદયમાં જ સકલચારિત્ર સ'ભવે છે. हवे गौतम स्वाभी पूछे छे ( तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पण्णत्ता ) हे लहन्त ! ने पुरुषनुं विल गज्ञान अवधिज्ञान३ये परिशुत थ ગચુ હાય છે, તે પુરુષના કેટલા અધ્યવસાય કહ્યાં છે ? भडावीर प्रभुना उत्तर -- ( असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णा) हे गौतम ! તેના અસખ્યાત અધ્યવસાય હાય છે, એવુ* જિનેન્દ્ર દેવાએ કહેલુ છે.

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