Book Title: Bhagwati Sutra Part 07
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 729
________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० २०९९०३१ सू०३ अश्रुत्वाऽवधिज्ञानिनो लेश्यादिनिरूपणम् ७०९ इति । ततश्च ' कम्मरयविकरणकरें अपुव्त्रकरणं ' कर्मरजोविकरणकरं कर्मरजोविक्षेपकम् अपूर्वकरणम् असदृशाध्यवसाय विशेषणम्, 'अणुप्पविस्सतेअणुत्तरे निव्वाधार निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुत्पन्ने अनुप्रविष्टस्य प्रतिपन्नावधिज्ञानस्य पुरुषस्य विपयानन्त्यात् अनन्तम्, सर्वोत्तम - वात् अनुत्तरम्, कटकुडघादिभिरप्रतिहननात् निर्व्याघातम्, सर्वथा स्वावरणक्षयात् निरावरणम्, सकलार्थग्राहकत्वात् कृत्स्नम्, सकलस्वांशयुक्ततयोत्पन्नस्वात् प्रतिपूर्ण, केवलवरज्ञानदर्शनम् अभिधानापेक्षया केवलम् केवलनामक मित्यर्थः ज्ञानान्तरापेक्षया वरं श्रेष्ठं ज्ञानं च दर्शनं च समुत्पन्नं भवति ।। सू० ३ ॥ भावी है। तात्पर्य इस कथन का यही है कि " मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलं " सब से प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय किया जाता है इसके क्षय होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनका क्षय होता है । यहां पर जो अनन्तानुबंधी आदि कषायों का क्षय प्रकट किया गया है उससे सूत्रकार ने यही बात प्रदर्शित की है । इस तरह ( कम्मरयविकरणकरं अपुञ्चकरणं अणुपविट्ठस्स) कर्मरज को विखेरने वाले अपूर्वकरण में असदृश अध्यवसाय में प्रविष्ट हुए इस प्रतिपन्न अवधिज्ञान वाले पुरुष को विषयों की अनन्तता से “अनंते " अनन्त (अणुत्तरे ) सर्वोत्तम होने से अनुत्तर, (निव्वाघाए ) कट कुडय आदि द्वारा अप्रतिहत होने से निर्व्याघात ( निरावरणे) आवरण कर्म के सर्वथा क्षय होने से निरावरण, ( कसिणे ) सकलार्थ ग्राहक होने से कृत्स्न ( पडिपुन्ने ) सकलस्वशियुक्त रूप से उत्पन्न होने से प्रतिपूर्ण, ऐसे જવાથી માકીનાં કર્માના પણ અવશ્ય વિનાશ થાય છે આ સ્થનનું તાત્પ એ छे े ( मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवल ) सौथी प्रथम भाईનીય કર્મના ક્ષય કરવામાં આવે છે, તેના ક્ષય થતાં જ જ્ઞાનાવરણીય, દનાવરણીય અને અન્તરાય કર્માંના ક્ષય થઇ જાય છે. અહીં જે અનંતાનુખ ધી આદિ કષાયાના ક્ષય પ્રકટ કરવામાં આવ્યે છે, તેના દ્વારા સૂત્રકારે એજ વાત अहर्शित उरी छे. या रीते ( कम्मरयविकरणकर अपुव्त्रकरणं अणुपविट्ठस्स ) કરજને વિખેરનાર અપૂર્વકરણમાં અસદેશ અધ્યવસાયમાં પ્રવિષ્ટ થયેલા તે अतियन्न अवधिज्ञानवाजा पुरुषने " अणते " अनंत, ( विषयोनी अनततानी अपेक्षाओं अनत ) “ अणुत्तरे " अनुत्तर ( सर्वोत्तम ), “ निव्वाघाए ” निर्या घात (यट्टाई, हिवास आदि द्वारा अवरोधी न शाय श्रेवी ) " निरावरणे " આવરક કર્મોના સથા ક્ષય થવાથી નિરાવરણુ, " कसिणे " સકળ પદાર્થાન "

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