Book Title: Bhagwad Gita Vivechanatmak Shabdakosh
Author(s): Prahlad C Divanji
Publisher: Munshiram Manoharlal Publishers Pvt Ltd

Previous | Next

Page 260
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Chapter, verse and S. No. verse-quarter in the vulgate 253 254 255 256 257 258 44/3 95 ,, 46/2 ,,/3 47/3-4 ,,,,/ 5-6 " " " 259 ,, 54/2 260 55/2 (27,28) "" (25) " " "" 261 57/3 (29,30) ུ ࿄ " " 262 59/3 (31) 33 "" 263 60/4 264 61/2 50/2 (25,26) 23 "9 (24),, 50/2 13 (26) " " "" "" ور 14 (27) (28),, 57/2 ,, 55/3 (29) " ,, 59/2 (30) (31),,,, /4 (32) 61/2 www.kobatirth.org Bhagavadgità Word-Index Pt. I - Appendix II Reading in the N.S.P. edition of the vulgate परिचर्यात्मकं कर्म येन सर्वं इदं ततम् स्वकर्मणा त अभ्यर्च्य स्वभाव नियतं कर्म पर्युस्थानात्मकं कर्म येन विश्वं इदं ततम् स्वकर्मणा तं एवार्च्य स्वधर्मे निधनं श्रेयः कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ परधर्मोदयादपि ॥ तथाप्नोति निबोध मे न शोचति न काङ्क्षति यावान्यश्चास्मि बुद्धियोगमुपाश्रित्य मिथ्या एषः व्यवसायस्ते करिष्यस्यवशोऽपि तत् हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति 58 / 3-4 अहङ्कारान्न श्रोष्यसि न योत्स्य इति मन्यसे प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति तथाप्नोति निबोध मे समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा मयि संन्यस्य मत्परः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Reading in the Kasmir recension स्वभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ प्राप्नोति तन्निबोध मे (24) न शोचति न हृष्यति योsहं यश्चास्मि बुद्धियोगं समाश्रित्य मिथ्या एव अध्यवसायस्ते करिष्यस्यवशोऽपि सन् हृद्येषो वसते अर्जुन (32) तदाप्नोति निबोध मे (T and C ) समासेन तु कौन्तेय (S, J and C ) निष्टा ध्यानस्य या परा ( S and T ) ततोऽसौ तत्त्वतो ज्ञात्वा (T) मयि संन्यस्य भारत (T and C) अहङ्कारं न मोक्ष्यसि 222 (T and C ) न योत्स्यामीति मन्यसे (S and T') प्रकृतिस्त्वा नियोक्ष्यते (T and C ) हृद्देशे वसते ऽर्जुन (T) For Private and Personal Use Only Remarks

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411