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सम्पादकीय
परम पवित्र सत्पुरुषों के करुणापूर्ण अनुग्रह से यह 'भक्ति कर्त्तव्य' आज कुछ अंशों में चरितार्थ हो रहा है, स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रहा है । भक्ति की महिमा अनेक महापुरुषों ने गाई है । इस परंपरा में श्रीमद् राजचंद्रजी एवं योगीन्द्र युगप्रधान श्री. सहजानन्दघनजी ने न केवल भक्ति की महिमा ही गाई, किन्तु उसका उन्होंने जीवन में स्वयं अनुभव किया और जीवन की समग्रता की साधना में आत्मदर्शन-आत्मानुसंधान की आराधना में, "ज्ञानदर्शन-चरित्र" के रत्नत्रयी साधनापथ में उसका सूक्ष्म विवेक-युक्त स्पष्ट स्थान भी प्रतिष्ठित किया, जैसा कि यहाँ 'भक्ति क्यों ? 'भक्ति - शक्ति', इ० शीर्षकों के अन्तर्गत उन्हीं की वाणी में प्रस्तुत किया गया है ।
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विचार - वाणी को यहाँ
इन दोनों महापुरुषों की इस उपकारक मूल गुजराती से अनूदित करके हिंदी में ही रखा गया है, परंतु उनका पद्य इस पुस्तिका में तो जैसा का तैसा मूल गुजराती या हिंदी में रखा गया है । विदेहस्थ यो यु. सहजानन्दजी की स्वयं की भावना और आशा-अपेक्षा थी कि परमकृपालुदेव श्रीमद् राजचंद्रजी की वाणी 'सर्वजनश्रेयाय' गुजराती से और साम्प्रदायिकता की संकीर्ण सीमाओं से उठकर मतपंथ के सीमित क्षेत्र के पार व्यापक विराट विश्व में व्यक्त और व्याप्त हो । इस दृष्टि से उन्होंने इन पंक्तियों के प्रस्तोता को अनुग्रह करके एक पत्र में लिखा था कि