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कल्पवृक्ष, चितामणी, इन भव में सुखकार ; ज्ञानवृद्धि इनसे अधिक, भव दुःख भंजनहार. १८ राई मात्र घटवध नहीं, देख्यां केवलज्ञान ; यह निश्चय कर जानके; त्यजीये परथम' ध्यान. १९ दूजा कुछ भी न चिती, कर्म बंध बहु दोष; त्रीजा चौथा ध्याय के, करीओ मन संतोष. २० गई वस्तु सोचे नहि, आगम वांछा नाही; वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जग माही. अहो! समदृष्टि आतमा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल; अंतर्गत न्यारो रहे, (ज्यु) धाव खिलावे बाल. २२ सुख दुख दोनु वसत है, ज्ञानी के घट माही; गिरि सर दीसे मुकरमे', भार भीजवो नाही. २३ जो' जो पुद्गलफरसना, निश्वे फरसे सोय; ममता समता भाव से, कर्म बंधन क्षय होय. २४ बांध्यां सोही भोगवे, कर्म शुभाशुभ भाव; फल निरजरा होत है, यह समाधि चित चाव. २५
१ आर्त-:दुख रुप परिणाम २ रौद्र पाप-रूप परिणाम ३ धर्म शुभ रूप परिणाम ४ शुक्ल शुद्ध परिणाम ५ पर्वत, सरोवर ६ अरीसामा ७ जे जे पुद्गलोनो स्पर्श थवानो छे, तेमाँ ममता भावथी कर्मबंध अने समता भावथी कर्म क्षय थाय छे. ८ बांधेला कर्म भोगवतां शुभा शुभ भावथो फल थाय छे. समभावमां चित होय तो निर्जरा थाय छे.
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