Book Title: Bbhakti Karttavya
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram

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Page 98
________________ स्परस रसना ध्राननको, चख कान विषय सेवनको; बहु करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने. ६. फल पंच उदबर खाये, मधु मांस मद्य चित्त चाहे; नहि अष्ट मूलगुणधारी, विरस जु सेये दुःखकारी. १०. दुईबीस अभख जिन गाये, सो भी निशदिन भुजाये; कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों कर उदर भरायो. ११. अनंतान जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो; संज्वलन चौकरी गुनिये, सब भेद जु षोडश सुनिये. १२. परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि तिवेद सँजोग; पनवीस ज भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम. १३. निद्रावश शयन कराई, सपनेमधि दोष लगाई; फिर जागी विषय-वन धायो, नानाविध विषफल खायो. १४. किये आहार निहार विहारा, इनमें नहि जतन विचारा; बिन देखी, धरी, उठाई. बिन शोधी भोजन (वस्तु) खाई. १५. तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो; कछु सुधि बुधि नाहि रही है, मिथ्यामति छाय गई है. १६. मरजादा तुम टिग लीनी, ताहूमें दोष जु कीनी; भिन्न भिन्न अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविष सब पईये. १७. हा! हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस जीवनराशि विराधी; थावरको जतन न कीनी, उरमें करुणा नहि लीनी १८. पृथिवि बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई; बिनगाल्यो पुनि जल ढोल्यो, पंखातें पवन विलोल्यो. १६. हा! हा! मैं अदयाचारी, बहुहरित जु काय विदारी; या मधि जीवनके खंदा, हम खाये धरि आनंदा. २०. हा ! मैं परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई; ता मध्य जीव जे आये, ते हू परलोक सिधाये. २१. 67

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