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प्रणमी पदपंकज भणी, अरिगंजन अरिहंत. कथन करों अब जीवको, किंचित् मुज विरतंत.' ८ आरंभ विषय कषाय वश, भमियो काल अनंत ; लक्ष चोरासी योनीसे, अब तारो भगवंत देव गुरु धर्म सूत्रमें, नव तत्त्वादिक जोय; अधिका ओछा जे कह्या, मिथ्या दुष्कृत मोय. १० मिथ्या मोह अज्ञानको, भरियो रोग अथाग; वैद्यराज गुरु शरणथी, औषधज्ञान विराग. ११ जे में जीव विराधिया, सेव्यां पाप अढार ; प्रभु तुम्हारी साखसें, वारंवार धिक्कार. बुरा बुरा सबको कहे, बुरा न दीसे कोई; जो घट शोधे आपनो, मोसु बुरा न कोई. कहेवामां आवे नहि, अवगुण भर्या अनंत ; लिखवामाँ क्यु कर लिखु, जाणो श्री भगवंत. १४ करूणानिधि कृपा करी, कर्म कठिन मुझ छेद ; मिथ्या मोह अज्ञान को, करजो ग्रंथी भेद. १५ पतित उद्धारन नाथजी, अपनो बिरुद विचार ; भूलचूक सब माहरी, खमी वारंवार.
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1 वृत्तांत, वर्णन, 2 'मारा माठां काम निष्फल थाओ'
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