Book Title: Barah Bhavana Ek Anushilan Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ मेरी भावना जब मैं अपने विगत चालीस वर्षों के जीवन पर दृष्टि डालता हूँ तो एक बात अत्यन्त स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होती है कि अनेक अभावों, संघर्षों और व्याधियों के बीच बीता यह जीवन आगम और परमागम के अभ्यास में अनवरतरूप से संलग्न रहा है। इसका श्रेय पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी को तो है ही; पर मेरे भवभयभीरू धर्मप्रेमी माता-पिता को भी है, जिन्होंने अनन्त प्रतिकूलताओं के बीच भी दश वर्ष की अल्पवय में ही आगम के अभ्यास में लगा दिया और निरन्तर लगाये रखा। ___ यौवन के आरम्भ में ही पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी का सत्समागम मिल जाने से अध्यात्म का रस लग गया और मैं बड़े ही उत्साह से अध्यात्म के प्रतिपादक परमागम के अभ्यास में संलग्न हो गया, गृहस्थोचित विषम स्थितियाँ एवं यौवन का उद्दाम प्रवाह उसमें बाधक न बन सका। ____ आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे पूज्य पिताश्री ने मेरे जन्म से पूर्व ही नहीं, अपितु, उनकी शादी के पूर्व ही हमें जिनागम का विशेषज्ञ विद्वान बनाने का संकल्प कर रखा था। उनके वे शब्द मुझे बार-बार याद आते हैं, जो वे समय-समय पर बड़े ही गौरव से गद्गद होकर कहा करते थे। हमारी जन्मभूमि के निकटवर्ती अतिशय क्षेत्र सेरोनजी के मेले के अवसर पर किसी विद्वान का प्रवचन सुनकर उन्होंने संकल्प किया था कि यदि उनकी शादी हुई और सन्तान हुई तो वे उसे ऐसा ही विद्वान बनावेंगे, जो हजारों के बीच धाराप्रवाह प्रवचन करे। अपने स्वप्न को साकार हुआ देख वे परमसन्तुष्ट थे, कृतकृत्य से हो गये थे। पण्डित भूधरदास कृत बारह भावनाएँ वे प्रतिदिन प्रात:काल बड़े ही गद्गद भाव से गाया करते थे। उनसे सुन-सुन कर हमें भी सात-आठ वर्ष की उम्र में ही वे बारह भावनाएँ कण्ठस्थ हो गई थीं।Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 190