Book Title: Avashyakasutram Part_3
Author(s): Bhadrabahuswami, Malaygiri,
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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श्रीआव०
तिया तिन्नि दुया तिग्निकाका य होंति जोगेसु।तिदुएवं निदुइकं तिदुएक चेव करणाइं॥॥" आगतफलं तु क्रमेणवम्-एक * प्रत्यास्यामलयगिएककस्त्रयस्त्रिका द्वौ नवको एकस्त्रिको द्वौ नवकाविति, स्थापना ३३३२२२.का पुनरत्र भावना-न करेइ नभंगा: पत्तौ सत्र-तीन कारवेइ करतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए कारणं एस एको प भेदो, नन्वेष भङ्गो देशविर-III स्पर्शिका तस्य कथमुपपद्यते !, अनुमतेस्तस्य प्रतिबन्धासम्भवात् , नैष दोषः, स्वविषयावहिरनुमतेरपि प्रतिषेधसंभवात् , यथा स्वयं
भूरमणसमुद्रमत्स्यादिधाते, उक्तं च-"न करेईचाइ तिगं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स।भन्नइ विसयरस बहिं पडि॥५८१॥
सेहो अणुमतीएऽवि ॥१॥" अत्रैवाक्षेपपरिहारौ भाष्यकृदाह-"केई भणंति गिहिणो तिविहं तिविहेण नत्थि संवरणं। तं न जतो निद्दिढ पन्नत्तीए विसेसेकं ॥१॥ तो कह निजुत्तीएऽणुमइनिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामनेणं नथि उ तिविहं तिविहेण को दोसो॥२॥ पुत्ताइसंततिनिमित्तमेतमेक्कादसिं पवनस्स । जंपति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि ॥३॥ (विशे. ३५४२-३-४) एतास्तिम्रोऽपि गाथा भावार्थमङ्गीकृत्योपोद्घातनिर्युक्तौ भाविता इति न
भूयः प्रतन्यन्ते । आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमती य!जह वइतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा F॥१॥ तयहीणत्ता वइतणुकरणाईणमहव मणकरणं । सावज्जजोगमनणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥२॥ कारवणं पुण मणसा १ चिंतेइ करेउ एस सावजं । चिंतेती उ कए पुण सुट्ट कयं अणुमती होई॥३॥गायात्रयमपीदं सुगम, एष गतः प्रथमो
॥५८१॥ भेदः, न करेइन कारवेइ करंतंपिअन न समणुजाणइ मणेणं वायाए एस एको १, मणेणं कारण य विइयो २, वायाए कारण य तईओ ३, एस बिइओ मूलभेदो गतो। इदाणिं तइयो-न कएन कारवेइ करतपि अकं न समणुजाणइ
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