Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 390
________________ ३४८ श्री आत्मप्रबोध. र्यने का, “ नगवन्, आपने शरीरे हवे आराम थयो , तेथी तमारे गृहस्थने योगपह पाछो आपको जोइए, अने आपे आ प्रमादना स्थाननो त्याग करवो जोइए. कारण के, थोमा पण प्रमादथी संसारनी वृछि थाय जे." आचार्ये कह्यु, " शिष्यो, श्रा योगपट्ट धारण करवामां शो प्रमाद थाय छे. आ योगपट्ट तो मारा शरीरने सुख करनारो बे, ते प्रमादनुं स्थान नथी. " गुरुनां आवां वचनो सांनळी ते विनीत शिष्यो मौनतुं अवलंबन करीने रह्या हता. केटलोक समय गया पड़ी ते सुमंगळ आचार्य श्रुतना उपयोगथी पोतार्नु आयुष्य पूर्ण थवानो अवसर जाणी अने एक विशिष्ट गुणवाला शिष्यने सूरिपदे स्थापी पोते संझेखना करी कालनी राह जोइ रह्या हता, ते वखते शिष्यो शुभध्यानोपगत गुरुनी निकामणा करतां आ प्रमाणे वोड्या-" हे स्वामी, व्रतग्रहण कर्या पली आज सुधीमा जे कांई प्रमाद स्थान सेव्यु होय तो ते आप आलोवो-पमिक्कमो." शिष्योना आ कथनथी सूरिए योगपट्ट धारण करवा शिवायना बीजा जे जे प्रमादना स्थान हता ते आलोव्या अने पडिकम्या. त्यारे शिष्योए कह्यु, " स्वामी, योगपट्ट धारणनो प्रमाद पण आलोवो." शिष्योनुं आ वचन सांभळी आचार्य कोपानळथी प्रज्वलित थइ बोट्या--" अरे शिष्यो, तमारी मति विनीत जे, जेथी तमे अद्यापि योगपट्टथी थयेला मारा दूषणने ग्रहण करो छो." आ प्रमाणे गुरुने कोपायमान थयेला जाणी तेश्रो विनयपूर्वक बोव्या-" स्वामी अमारो अपराध क्षमा करो. अमाए अजाणतां तमोने अप्रीति वचन कहेलु डे, आजथी हवे अमे बोलीशुं नहीं. " शिष्योना था वचनथी सूरिनो कोप शांत थइ गयो, पण तेमनुं ध्यान योगपट्टने विषे रहूं, तेश्रो ए प्रमाद स्थानने आलोच्या विना काल करी गया. ते पछी तेत्रो ए दोषने लश्ने कुडागार नगरना राजा मेघरथनी विजया नामे देवीना जदरमा गर्जपणे उत्पन्न थया. प्रसव समये जेना पग कटीपर वीटाएला चाममा पट्टे बांधेला , एवो ते पुत्र उत्पन्न थयो. राजाए तेनो जन्मोत्सव कर्यो अने बारमे दिवसे ते पुत्रनुं नाम दृढरथ पाडयुं. पांच धात्रीअोथी लालन करातो ते बालक ज्यारे आठ वर्षनो थयो त्यारे तेने कलाचार्यने सोंप्यो अने ते अनुक्रमे बोतेर कक्षामा प्रवीण बनी गयो. ते कलाओमां ते संगीतकलामा विशेष निपुण थयो. कुमार दृढरथने संगीतकलामां विशेष निपुण जाणी घणा गंधर्वो पोतपातानी कला बताववाने तेनी पासे आववा लाग्या. ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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