Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ ३८४ श्री आत्मप्रबोध. थइ आव्यो. ते समये ते नगरना सुबुद्धि नामना शेठे पोतानी पुत्री रत्नवती ने तेनी साधे परावी. पी जयदेव ते कन्या तथा बहु परिवार सहित पोताना व न हस्तिनापुरमा आव्यो अने ते पोताना मातापिताना चरणमां वंदना करी. पोताना पुलने वो समृद्धिमान् जोड़ ते माता पिता आनंदित थइ तेनी जारे प्रशंसा करवा लाग्या. स्वजनोए जयदेवनुं वह सन्मान कर्यु ने वीजा लोको तेन स्तुति करवा लाग्याने जयदेव यावज्जीवित सुखी थयो हतो. आ प्रमाणे धर्म रत्ननी प्राप्ति जयदेव ने पशुपालनो वृत्तांत कहेवाय छे; ते उपनय रुपे जाणवो. एवी रीते प्रसंगे प्राप्त थयेल बद्मस्थाश्रित एवं सर्वविरतिनुं स्वरूप कहेतुं छे. इत्थं स्वरूपं परमात्मरूप - निरूपकं चित्रगुणं पवित्रम् | सुसाधुधर्मं परिग्र जव्या भजंतु दिव्यं सुखमयं च" १ 46 आवा स्वरूपवाला, परमात्मरूपने निरुपण करनारा, विचित्र गुणवाला, पवित्र एवा उत्तम साधु धर्मने ग्रहण करी जव्य प्राणीओ दिव्य ने अकय सुखने भजो. " १ "" ८८ प्राक्तन सद्ग्रंथानां पद्धतिमाश्रित्य वर्णितोऽत्रमया । साध्वाचारविचारः शुद्धो निज आत्मशुद्धिकृते " ॥२॥ पूर्वना सदग्रंथोनी पद्धतिने श्री मारा पोताना आत्मानी शुदिने माटे में अहं शुद्ध एवो साधुनो आचार वर्णन करेलो छे. " २ ए प्रकारे श्रीमान् वृहत् खरतर गहना अधिराज श्री जिननक्तसूरींना चरणाराधक श्री जिनलानसूरिए रचेल्ला आत्मबोध ग्रंथनो संक्षिप्त सर्व विरति नामनो त्री जो प्रकाश संपूर्ण थयो. Jain Education International For Private & Personal Use Only ONE www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464