Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 452
________________ श्री आत्मप्रबोध. " सिद्ध भगवान्नी अवगाहना त्रीजे जागे हीन होय बे. ते 'अनित्थंस्थं ' एटले या प्रकारे पामेल नथी अर्थात् मुख आदि पोलाशनो जाग पूरावाने लइने पूर्वना कारथी अन्यथा प्रकारे आकारनो तेमां सद्भाव बे नावार्थ समजवो, ते वळी सिद्धादिकना गुणाने विषे सिद्ध भगवानोने जे दीर्घपणानो प्रतिषेध को, ते पूर्वना आकारनी अपेक्षाए संस्थानना अनित्थंस्थं ( ए प्रकार रहितपणे) पणे अंगीकार करवो, पण सर्वथा संस्थाननो अभाव नथी. 44 हिं को शंका करे के, “ सिवना जीवो परस्पर देश भेदे करीने रह्या बे के बीजी रीते ?" नो उत्तर कहे बे ४१० “ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अांता भवस्कय विमुक्का | मोस समोगाढा, पुडा सव्वेवि लोगंते " ॥१॥ " ज्यां एक सिद्ध बे, त्यां अन्योन्य अवगाहीने लोकांतने स्पर्शी अनंता सिद्ध भगवानो रहेला बे. 66 सिद्धजीवोनुं लक्षण. सरीरा जीवघणा, नवनचा दंसणे य नाणे य । सागारमणागारं, बकणमेयं तु सिद्धाणं " ॥ १ ॥ " शरीर रहित जीवधन एटले घणा जीवो अथवा वदनादि बो पूराइ जवार्थी जीवधन केवळ दर्शन तथा केवळङ्गज्ञानने विषे उपयोगवाळा; हिं जो के सिप प्रगट थवामां केवलज्ञानना उपयोगनो संभव होवाथी ज्ञाननी प्रधानता बे तथापि सामान्य सिन्धोनुं लक्षण जणाववा माटे प्रथम सामान्य अवलंबन रूप दर्शन कनुं छे. अहिं सामान्य विषय ते दर्शन अने विशेष विषय ते ज्ञान समजवं; तेथे साकार ने अनाकार - सामान्य विशेष उपयोगरुप सिद्ध जीवोनुं लक्षण बे. केवळदर्शनने समस्तवस्तुनुं विषयपणुं बे. केवलज्ञान केवळनावउत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासती सव्व खबु, केवल दिट्ठी हिताहि " ॥१॥ 66 ܕ Jain Education International १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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