Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 447
________________ .... . चतुर्थ प्रकाश. ४०५ जाग तेने विषे श्री अनंता सिद्ध जगवानो अनंत अनागत कामना स्वरूपे रहेला तेना स्वरूपने प्रतिपादन करनारी गाथा आ पमाणे - " तत्यवि अ ते अवेया, अवेयणा निम्ममा असंगाय । संसारविप्पमुका पएसनिव्वत्तसंठाणा " ॥१॥ ते सिक क्षेत्रमा रहेला सिझ जगवानो पुरुष वेदादिके रहित, शाताअशाता वेदनाए वर्जित, ममत्व विनाना अने बाह्य तथा आत्यंतर ने प्रकारना संगथी रहित के कारण के, तेश्रो आ संसारथी मुक्त थयेना अने आत्म प्रदेशथी निष्पन्न थयेना संस्थानवाला छे. अहिं प्रदेशमा प्रात्माना प्रदेश सेवा पण बाह्य पुद्गल न लेवा; कारण के, तेमने पांचे शरीरनो त्याग थयेनो के. - अहिं प्रश्न करे ने के " कहिं पडिहया सिधा कहिं सिखा पइग्यिा। कहिंबोदी चश्ताणं कब गंतूण सिज्म " ? ॥१॥ . (अहिं 'कहिं एत्रीजी विनक्तिना अर्थमा सप्तमी विनक्ति छे) " ते सिक नगवानो कोनाथी सवलना पाम्या ? तेश्रो कया स्थानमा रह्या रे ? कया क्षेत्रमा जश्ने तेमणे शरीरनो त्याग कर्यो अने कयां जश्ने सिषि पदने वरे ने एटले निष्ठितार्थ थाय छे. ?" तेना उत्तरमा कहे जे के, " अलोए पडिहया सिझा लोगग्गे य पइच्श्रिा । इह बोदींचश्त्ताणं तब गंतण सिज्जर " ॥ १ ॥ " ते सिक जगवानो अलोके करीने-केवळ आकाश रुपे करीने स्वाना पाम्या एटले सिघना जीवो अलोकमां धर्मास्तिकायादिकनो अनाव होवाथी तेनु जे समीपवतीपएं, तेज अहिं तेपर्नु स्खलन डे; पण संबंध छतां तेमनो विघात ( रोकवापणुं ) नयी, कारण के, तेमने रोकवापणानो अनाव के तेम वळी पंचास्तिकाय रुप जे लोक तेना छेदा अग्रनागना मस्तक उपर ते रहेना ने अने फरी पार्छ संसारमा प्रावq नथी, एवी स्थितिए रहेला छे तथा आ मनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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