Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 429
________________ चतुर्थ प्रकाश. ३८७ स्तवनीय. जाकरवी योग्य मुनिओने सर्व सावध योगनी निवृत्ति होवाथी तेमनी नावपूते विषे आगमने विषे प्रतिपादन करेलुं बे. herएक सांप्रतकाले बुद्धिहीन, श्री वीरमजुनी परंपरानी बाहेर वर्तनारा, मिथ्यात्वना उदयथी पराजव पामेला, स्वपति कल्पित अर्थ स्थापनारा श्री जिनेश्वरे रूपेला स्याद्वाद - अनेकांत मार्गने झोपनारा लोकोए कुदृष्टिनो विलास प्रगट करेलो बे; ते लोको जैनानास एटले जैन लक्षण रहित छतां जैनना जेवो आनास बतावनारा बे. ते श्री परम गुरु-तीर्थकरना वचनाने उध्यापनारा होवाथी अनंत भव भ्रमणाना जयने अवगणी पोते ग्रहण करेला असत्पक्षने सिद्ध करवा माटे जोळा लोकोनी गळ उत्सूत्र प्ररूपणा करे छे. तेप्रो कहे बे के, " स्थापनाजिन ज्ञानादि गुणोथी शून्य होवाथी वंदना करवा योग्य नथी, तेमने वंदना करवाथी सम्यक्त्वनो नाश थाय बे. आगमने विषे पण तेमने वंदना करबानो अधिकार को नथी. आधुनिक लोकोए पोतानुं माहात्म्य प्रगट करवाने माटे जिनचैत्यनी स्थापना करेली बे. " वी ओ कहे छेके, “जिनबिंबनी पूजा वगेरे करवामां साक्षात् जीवहिंसा देखाय बे अने ज्यां जीवहिंसा होय त्यां धर्म होयज नहीं. कारण के, धर्म तो दया मूलज को बे, तेथी पोताना सम्यक्त्वनुं अक्षयपणे रक्षण करवाने इष्टनारा प्राणीने तो श्री जिन प्रतिमानुं दर्शन कर पण प्रयुक्त बे. अहा ! केवी अज्ञानता दे ! पूर्वजोने संतुष्ट करवा माटे पींपळा आदि कोना मूलमां सचित्त जलनुं सिंचन करवा प्रमुख आचरण ने मिथ्यात्वी देवनी पूजा वगेरेमां प्रवर्त्तन -- ए करवामां सम्यक्त्वनो नाश थतो नथी. कारण के, संसारीपणाने लइने श्रावकोने एवा कार्यमा अधिकार के. या प्रसंगे सिद्धांतना वचनाने अनुसरी अद्भुत युक्तिथी तेमना असत् पहने दूर करवा माटे उत्तररूपे वचनो कहेवामां आवे छे जे स्थापना जिन बे तेनों जिन स्वरूपने स्मरण कराववा प्रमुख जे तात्विक हेतु युक्तिपूर्वक प्रथम कहेवामां आव्यो बे, से प्रत्यक्षादि प्रमाणव के सिकयाय बे, तेथी तेमनामां सर्वथा गुणशून्यपणानो अनाव होवाथी नामां वंदनादि करवानी योग्यता सापित थायडे. ते स्थापना जिननुं दर्शन वंदन वगेरे करवाथी तत्काळ शुभ ध्यान प्रगट थतां प्राणीने सम्यक्त्वनी निर्मलता प्राप्त थाय छे. तेथे ते जैनानासोए सम्यक्त्वने नाश थवानी जे युक्ति कहेली Jain Education International ܐܕ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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