Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 441
________________ चतुर्थ प्रकाश. ३एए सित्तएवा गणथ्थ अरिहंते वा अरिहंतचेश्याणि वा " इ. त्यादि ॥ अंबम परिव्राजकने जे कल्पतुं नथी तेने माटे कहे जे के, अन्यतीर्थिओने तथा अन्य तीर्थोना देवाने तेमज अन्यतीर्थिोए ग्रहण करेला अरिइंतना चैत्योने वंदन-नमस्कार तथा पर्युपासना करवी ते विषे. परंतु तेमां आटटुं विशेष डे के, अरिहंत तथा अरिहंतनी प्रतिमाने वंदनादिक कर कटपेछे. ए प्रमाणे श्री उपासकदशांगसूत्रमा पण आनंद श्रावकने अधिकारे जे कहेवामां आव्युं बे, ते ते स्थनेथी जाणी लेवू. वनी ते जैनानासो कहे जे के, “प्रदेशी राजाए चैत्यो केम न कराव्या ? " तेना उत्तरमा कहेवायूँ के, प्रदेशी राजा श्री जैनधर्मनी प्राप्ति कर्या पली केटनो काल जीव्यो हतो के ते चैत्यो करावे ? तेम वन्नी सर्व श्रावको एकज प्रकारनुं धर्म कार्य करे, एवो नियम क्यां छे ? तेथी सुदृष्टि पुरुषोए सर्व धर्मकार्यमां सम्यग् दृष्टिवके श्रछा करवी. पण कुदृष्टिोनी जेम श्री जिनोक्त धर्मकृत्यनो स्वमति कट्पनाए निषेध करवो नहीं. वत्री श्री जंबूछीप पन्नतिमा प्रथम ,जिनना निर्वाणने स्थाने स्तूप करवाना अधिकारमा “ जिणनशिए धम्मचिए" एवो पाउ जे. अने तेनो “ जिन जक्तिथी धर्मथी" एवो अर्थ थाय , ते उपरथी पण सिफ थाय ने के, आगमने विषे स्तूप निर्माणनी अंदर जिन नक्ति करवी कहेली छे. तो पड़ी जिन चैत्य करवा-कराववामां जिन जक्ति प्रगटज छ तेमां शो संदेह करवो. तेमज महानिशीथ सूत्रमा श्रावकोने आश्रीने चैत्य निर्मापणनो अने साधुओने आश्रीने चैत्यवंदनादिकनो अधिकार प्रगटपणे कहेलो . धर्मना अर्थी पाणीओए ते स्वतः सम्यग् दृष्टिए विचारी लेवो. वनी व्यवहार सूत्रमा “ जहेव सम्म नावियाई पासिज्जा तहेव आलो इज्जा" ए पाठमां पण चैत्यनी सादीए आलोचना लेवी कहेली , एम केटलाएक आगमना वचनो देखाय . धणा आगमने विषे स्थापनादिकनो अधिकार विद्यमान छे. ते जैनानासो कहे छे के, " बत्रीशज आगम प्रमाण बे, तेना संबंधां Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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