Book Title: Atmprabodh
Author(s): Jinlabhsuri, Zaverchand Bhaichand Shah
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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तृतीय प्रकाश. कारे प्रमाद उपर सुमंगलमुनिनुं दृष्टांत . आ दृष्टांत उपरथी प्रमादना देशथी उत्पन्न थयेला कर्मनो विपाक केवो विषम डे ? तेनो विचार करी संसारनीरु एवा मुनिओए सर्वदा प्रमादनो परिहार करवो जोइए.
हवे प्रमादनो परिहार करी संयम पालवामां उजमान थयेला मुनिओ मननो निग्रह करवा प्रमुख कार्यमा जे वार सदनावना नावे . तेनुं स्वरुप कहेवामां आवे बे.
" पढम मणिच्च मसरणं संसारो एगया य अन्नत्तं ।
असुश्तं आसवसंवरोय तह निजरानवमी ॥ १॥ लोग सहावो बोहि-सुबहा धम्मस्स साहगा अरिहा । एयाओ भावणाओ, भावेयवा पयत्तेणं " ॥ २ ॥
? अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचि, ७ आश्रव, संवर; ए निर्जरा, १० लोक स्वरुप, ११ बोधि दुर्लन अने १२ धर्मना साधक अरिहंत-इत्यादि बार नावनाओनो सुदृष्टि पुरुषोए यत्ने करी अभ्यास करवो.
१ आ संसारमा मोहादिकने वश थइ सर्व वस्तुने विर्षे अवली बुझिवाबा मूढजनो स्वामित्व, धन, यौवन, शरीरखावण्य, बल, आयुष्य, विषय सुखनी वबनता अने जनसंयोगादिक पदार्थोने पर्वतथी उतरती महा नदीना पूरनी पेठे अत्यंत वायुना समूहे कंपावेला ध्वजपटनी जेम वांछित प्रदेशमा पोतानी श्या प्रमाणे विहार करनारा अने चारे तरफ जमराओना समूहे आश्रित एवा गंडस्थलवाला मदोन्मत्त हस्तीना कर्णतालनी पेरे अने निबिक पवने करी हणाएसा वृक्षना पाका पात्राना समूहनी परे अति चंचल , तोपण ते सर्वदा नित्यरुप जाणे , पण तत्त्व दृष्टिए जोतां आ सर्व जावो अनित्य , तेमां एक पण नित्य-शाश्वत नथी. वली जे परमानंदने आपनारा सदज्ञानादिक प्रात्माना गुणों ते नित्य , आ प्रमाणे जे चिंतवg, ते पेहेंत्री अनित्य नावना कहेवाय उ.
तेने माटे आ प्रमाणे कहेलु डे. " सामित्तणधणजुव्वणक रूवबलाउछसंजोगा।
अइलोता घणपवणा हयपायव पकपत्तव्व " ॥ १ ॥
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