Book Title: Arhat Vachan 2000 01
Author(s): Anupam Jain
Publisher: Kundkund Gyanpith Indore

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ सम्पादकीय अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर सामयिक सन्दर्भ सकारात्मक चिन्तन एवं रचनात्मक कार्य ही समाज का निर्माण करने में सक्षम है, किन्त दर्भाग्य से वर्तमान में एक लहर चल रही है नकारात्मक चिन्तन एवं विरोधात्मक क की। इस युग के सर्वप्रमुख जैनाचार्य, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने भी निन्दकों को अपने समीप रखने की प्रेरणा दी थी। उन्होने कहा - 'निन्दक नियरे राखिये ...........।' परन्तु निन्दा करने का अधिकार किसको है, यह भी विचारणीय है। आजकल 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज पर दूसरों को ज्ञान बांटने वालों की बहुलता होती जा रही है। आलोचना करना और निन्दा करना यह एक फैशन बनता जा रहा है। शायद प्रगतिवादी होने की यह पहली कसौटी बन गई है। अपने समर्पण, तप, ज्ञान, समय अथवा धन के माध्यम से समाज के निर्माण, संस्कृति के संरक्षण अथवा सामाजिक कुरीतियों के परिष्कार में जुटा व्यक्ति यदि किसी की आलोचना करता है तथा आलोचना के पीछे दृष्टि समाज के निर्माण की है, तो वह सहज स्वीकार्य है। आलोचना करना सदैव बड़ा आसान होता है किन्तु कुछ रचनात्मक करके देना बड़ा मुश्किल कार्य है। राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज ने कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली के रूप में प्राकृत भाषा के अध्ययन का एक सुन्दर केन्द्र विकसित करके समाज को दिया है। स्वयं पूज्य आचार्य श्री ने अपनी साधना से बचे समय का उपयोग कर जैन संस्कृति की ऐतिहासिकता के बारे में दुर्लभ तथ्यों का संकलन किया है। आज देश में जैनियों की भाषा शौरसेनी पर जिस सुनियोजित ढंग से प्रहार किये जा रहे हैं उनका प्रामाणिक तथा सक्षमता से प्रतिकार पूज्य आचार्य श्री के निर्देशन में ही कुन्दकुन्द भारती द्वारा किया जा रहा है। इस संस्था की पत्रिका 'प्राकृत विद्या' भी भाषा, सामग्री और प्रामाणिकता की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट है। मैं इसके संपादक, युवा विद्वान डॉ. सुदीप जैन, दिल्ली को एतदर्थ बधाई देना चाहूँगा। निश्चित ही यह एक रचनात्मक प्रवृत्ति है। . आदिवासी अंचलों में जैन संस्कृति के संवाहक सराक बंधुओं में उनके विस्मृत संस्कारों को पुनर्जीवित करने, उन्हें संस्कृति की मुख्य धारा में सम्मिलित करने, सराक क्षेत्र में विकीर्ण जैन संस्कृति के अवशेष मंदिरों, मूर्तियों, शिलालेखों के सर्वेक्षण, संरक्षण एवं प्रकाशन के लिये सघन प्रयास करने हेतु उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज के मार्गदर्शन में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन सराक ट्रस्ट तथा सराकोत्थान समितियाँ कार्यरत हैं। सराक बन्धुओं को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाने हेतु सराक परिवारों को सिलाई मशीनों का वितरण, कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु युवकों को प्रशिक्षण, सराक बालकों को जैन संस्कृति से परिचित कराने हेतु हिन्दी, बंगला आदि भाषाओं में सरल, सुबोध जैन साहित्य उपलब्ध करने की कौन आलोचना कर सकता है। प्रश्न हमारी दृष्टि का है। यदि हम अच्छाई ढूंढ़ने निकलेंगे तो हमें बहुत सारी अच्छाइयाँ मिल जायेंगी। यह बात सत्य है कि समय के साथ जैन संघ में भी अनेक दोष समाविष्ट हो गये हैं, किन्तु केवल दोषों का रोना रोने एवं बार - बार हताशा की बात करने से नैराश्य ही बढ़ता है। मन से टूटी हुई तथा उत्साह विहीन समाज कुछ भी सार्थक करने में सक्षम नहीं होती। फलत: हमें सीमित दायरे में उचित मंच पर आलोचना तो करनी चाहिये किन्तु जन-जन में उत्साह जाग्रत करने हेतु सकारात्मक चिन्तन ही प्रचारित, प्रसारित करना चाहिये। सुधार की प्रक्रिया व्यक्ति से प्रारम्भ होती है। यदि थोड़े से लोग भी कुछ रचनात्मक करने का संकल्प करते हैं तो उससे समाज को कुछ न कुछ मिलता ही है। प्रखर आलोचक यदि सामाजिक जीवन में त्याग, समर्पण एवं सेवा का आदर्श उपस्थित करते हैं तो समाज अर्हत् वचन, जनवरी 2000

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 104