Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ - तत्त्वों की उपलब्धि के अनुरूप पलों और दिशाओं को महत्व दिया है यही स्थिति इन जैन मुनियों की भी है । लगता है कि इस अवधि में आचार या साधन को ही साध्यता की कोटि प्राप्त होती जा रही थी, फलतः कट्टर साम्प्रदायिक लकीरों और रेखाओं के प्रति इनके मन में भी उग्र आक्रोश था और उस झुंझलाहट को वे उसी उग्र स्वर में व्यक्त करते हैं जिस स्वर में सिद्धोंनाथों और निर्गुणियों ने आक्रोश / गर्म उद्गार व्यक्त किये थे। प्रो. हीरालाल जैन ने ठीक लिखा है - इन दोहों में जोगियों का आगम, अचित् - चित्, देह, देवली, शिव-शक्ति, संकल्प, विकल्प, सगुण-निर्गुण, अक्षर बोध - विबोध, वाम-दक्षिण अध्व, दो पथ रवि शशि, पवन, काल आदि ऐसे शब्द हैं और उनका ऐसे गहनरूप में प्रयोग हुआ है कि उनमें हमें योग और तान्त्रिक ग्रन्थों का स्मरण हुए बिना नहीं रहता । " " भारतीय सामाजिक, धार्मिक आचार संहिता में जहाँ महापाप रूप दुराचार से परहेज किया गया है वहीं पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक संस्कृति / परम्परा में सदाचार की आवश्यकता और महत्त्व सहज स्वीकार किया गया है। इसीलिए भारतीय संतों, नीतिकारों, साहित्यकारों ने अपने उपदेशों द्वारा, साहित्य-सृजन द्वारा सदाचारमय जीवन जीने की प्रेरणा दी है जिससे मानव सभ्य - सामाजिक जीवन की स्थापना के साथ खतरनाक बाधाओं से भी मुक्त रहे । उसे दुराचार/ अनैतिक दुष्कृत्यों के दुष्प्रभावों को हृदयंगम कराते हुए उनसे बचने की प्रेरणा/सुझाव भी दिये हैं। इसका मूलकारण है कि वे जनजीवन के चारित्रिक एवं नैतिक स्तर को उन्नत करने के आकांक्षी थे। भारतीय संत परम्परा में जैनाचार्यों/नीतिकारों/विद्वानों/लेखकों ने सदाचार की प्ररूपणा करनेवाले श्रमणाचार / श्रावकाचार ग्रन्थों का प्रणयन किया है, ग्रन्थों की टीकाएँ की हैं, सुभाषितों के माध्यम से उसे स्पष्ट किया है तथा कथाओं के माध्यम से भी सदाचार के महत्त्व का प्रतिपादन कर दिया है। ऐसे ही एक कवि हैं मुनि कनकामर जिन्होंने अपभ्रंश में 'करकंडचरिउ' काव्य की रचनाकर पाठकों को साहित्य का रसास्वादन तो कराया ही है साथ ही उसे नीति, सदाचार एवं धार्मिक तत्त्वों से पुष्टकर अमानवीय, असामाजिक, अनैतिक, हिंसक आचरण को छोड़कर मानवीय सत्य आचरण अपनाकर सुखी एवं स्वस्थ जीवन-निर्माण हेतु निदर्शन दिया है।" जिन विद्वान लेखकों ने अपनी रचनाएँ भेजकर अंक के प्रकाशन में हमें सहयोग किया है। हम उनके आभारी हैं । संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी कार्यकर्त्ताओं के भी आभारी हैं। मुद्रण हेतु जयपुर प्रिन्टर्स प्रा. लि., जयपुर धन्यवादार्ह है । ( ix ) - डॉ. कमलचन्द सोगानी

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94