Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 71
________________ 58 अपभ्रंश भारती-8 बहुपहारेहिँ सूरु अत्थमियउ बहुपहारेहिँ सूरु अत्थमियउ अहवा काइँ सीसए । जो वारुणिहिँ रत्तु सो उग्गु वि कवणु ण कवणु णासए । णहमरगयभायणे वरवंदणु, संझाराउ घुसिणु ससि चंदणु । ससिमिगु कत्थूरी णिरु सामल, वियसिय गह कुवलय उडुतंदुल । लेविणु मंगलकरणणुराइय, णिसितरट्टि तहिँ समएँ पराइय । - सुदंसणचरिउ, 5.8 - बहु प्रहारों के पश्चात् सूर्य अस्तमित हुआ, (मानों) बहुत प्रहारों से शूरवीर नाश को प्राप्त हुआ। अथवा, क्या कहा जाय - जो वारुणि (पश्चिम दिशा) से रक्त हुआ, वह वारुणि (मदिरा) में रक्त पुरुष के समान उग्र होकर भी कौन-कौन नष्ट नहीं होता? नभरूपी मरकत के पात्र में उत्तम वंदना हेतु संध्यारागरूपी केशर, शशिरूपी चंदन, चन्द्रमृगरूपी अत्यन्त श्यामल कस्तूरी विकसित ग्रहरूपी प्रफ्फुल कमल तथा तारारूपी तंदुल, इन मंगलकरणों (साधनसामग्री) को लेकर अनुरागयुक्त निशारूपी रमणी उस समय आ पहुँची। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन

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