Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 16
________________ अपभ्रंश भारती - 8 सामण्ण भास छुडु मा विहडउ । छुडु आगम- जुत्ति किंपि घडउ । छुडु होंति सुहासिय-वयणाइँ । गामेल्ल भास परिहरणाइँ ॥ जं एवँवि रूसइ कोवि खलु । तहो हत्थुत्थल्लिउ लेउ छलु ॥ रामायण १.३ स्वयंभू के शब्दों में - - यही नहीं इस देशी भाषारूपी नदी के दोनों तट उज्ज्वल हैं। इसके आगे दुष्कर कवियों के घनीभूत शब्द भी शिलातल की भाँति रस से आप्लायित हो जाते हैं। इसमें अर्थ-छवियों की लहरें उठती रहती हैं जिसमें सैकड़ों आशाओं के समान वर्षा के बादल समर्पित होते रहते हैं। ऐसी ही सुरसरि के समान राम की कथा सुशोभित होती है, वैसे ही जैसे तुलसी का यह प्रतिमान कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कर हित होई ॥ देसी - भासा - उभय तडुज्जल । कवि-दुक्कर- घण- सद्द- - सिलायल । अत्थ- वहल - कल्लोलाणिट्ठिय। आसा-सय- सम- तूह परिट्ठिय ॥ ऍह राम कहा सरि सोहंति । अपभ्रंश के वाल्मीकि स्वयंभू ने भाषा की सार्थकता को सामाजिक, सांस्कृतिक प्रयोजन से जोड़कर देखा और उनकी प्रतिबद्धता है सामाजिक हित का महाभाव । - 3 इसी प्रकार संदेशरासक के कवि अब्दुल रहमान भी कहते हैं कि पंडित लोग अपने अहंकार कारण लोकभाषा की कविता नहीं सुनना चाहते और मूर्ख लोगों को केवल प्रयोजन की भाषा चाहिये । अतः जो लोग इसके बीच के हैं अर्थात् सामाजिक हैं उनके सामने मेरी कविता सर्वदा पढ़ी जायेगी हु रहइ बुहह कुकुवित्त रेसु, अबुहत्तणि अबुहह णहु पवेसु । जिण मुक्ख ण पंडिय मज्झयार, तिह पुरउ पढिब्बउ सव्ववार ॥ 21 ॥ कलिकाल - सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा की इसी सामाजिक प्रतिबद्धता और लोकोन्मुखता को देखते हुए ही इसके बारे में कहा था कि सिर पर जरा-जीर्ण लुगरी और गले बीस मणियाँ भी नहीं है तो भी गोष्ठी में मुग्धा ने (अपभ्रंश भाषारूपी नायिका) बैठे (पंडित) लोगों को उठक-बैठक करा दिया, झुमा दिया, जैसे चाहा वैसे नचा दिया सरि जर-खंडी लोअडी, गलि मणियडा न बीस । तो वि गोट्ठडा कराविया, मुद्धए उट्ठ-बईस ॥ - इस प्रकार अपभ्रंश कवियों की भाषा की प्रतिबद्धता है साधारण लोगों तक अपनी रचना को पहुँचाना। भले ही इसके लिए उन्हें व्याकरण, अलंकारशास्त्र और पिंगलशास्त्र छोड़ना पड़े । इस महान उद्देश्य में अपभ्रंश कवियों का आत्म-विश्वास देखते ही बनता है। लोक-सुख में ही अपभ्रंश कवियों का आत्म-सुख है। यही उनका समाज है, यही उनकी संस्कृति । उनका पूर्ण विश्वास था कि इसके बिना सामाजिक-सांस्कृतिक रूपान्तरण किया ही नहीं जा सकता । इसके लिए वे अपने से बाहर निकलकर वृहत्तर अनुभव - संसार में गये । समाज में गाये जानेवाले

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