Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 8
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सर्वप्रथम सवाल उठता भाषा का । साहित्य मूलतः वाणी का विधान है और वाणी की भूमिका बहुआयामी होती है। पं. रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में 'काव्य शब्द - व्यापार है। वह शब्द-संकेतों के द्वारा ही अंतस् में वस्तुओं और व्यापारों का मूर्ति-विधान करने का प्रयत्न करता है ।" इस विविध रूप में भाषा सर्वप्रथम दैनिक प्रयोजन के लिए अपेक्षित भाव- विचार - चिंतन के सम्प्रेषण का माध्यम बनती है तो दूसरी ओर पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान को संचित करते हुए उसे भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित करती है और तीसरी ओर वह सर्जन का उपादान बनती है और 'ज्ञानराशि के संचित कोश' का आधार सिद्ध होती है। पर उसका मूल्य विशेषरूप में इस बात पर निर्भर करता है कि वह लोक-जीवन के विविध आयामों, मानव जीवन की अन्तर्वेदनाओं और समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थितियों का कितना वास्तविक उद्घाटन तथा सही सर्जनात्मक स्वरूप दे पाती है। यहीं संवेदनशील रचनाकार भाषा से संघर्ष और असंतोष का अनुभव गहरे स्तरों पर बराबर करता आया है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के शब्दों में "यह संघर्ष और असंतोष वस्तुतः उसका अपने-आपसे है, क्योंकि भाषा उसके संपृक्त व्यक्तित्व का अनिवार्य और अविभाज्य अंग है - मनुष्य को शेष प्राणिजगत् से पृथक् करनेवाला आधारभूत उपकरण और व्यक्ति की संसार के प्रति समस्त प्रतिक्रियाओं का कुल योग है। अस्पष्ट संवेदनों के रूप में प्रतिभाषित अनुभव को हम वास्तविक अर्थ में ' अपना' भाषा के माध्यम से ही बना पाते हैं, अर्थात् भाषा के रूप में साक्षात्कृत होने पर संवेदन हमारे विशिष्ट अनुभव क्षेत्र का अंग बन पाता है। फलतः कृतिकार के नवीनतम विकास की दिशाएँ प्रमुखरूप से उसकी भाषा प्रयोग विधि में प्रतिफलित होती हैं।"" जब यह भाषा - संघर्ष लोक- भावभूमि समाज के निचले स्तर जुड़ता है तो पूर्व भाषा रचनाकारों को वह दूषण के रूप में दिखाई पड़ता है। पर समाजशास्त्र की भूमिका को सही रूप में समझनेवाले रचनाकार को वह भूषण के रूप में दिखाई पड़ता है । यही कारण है कि अपभ्रंश भाषा के सामाजिक सम्बन्ध को पांडित्य नकारता रहा। पर भाषा की वास्तविक सार्थकता समाज के प्रवाह के साथ जुड़ने में है। अपभ्रंश की इसी विशेषता के कारण पं. राहुल सांकृत्यायन ने इसे दूषण नहीं भूषण बताया। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि 'हिन्दी साहित्य के जन्म के बहुत पहले अपभ्रंश या लोकभाषा में कविता होने लगी थी । शुरू-शुरू में इसको आभीरों की भाषा जरूर माना जाता था, पर बाद में चलकर यह लोकभाषा का ही रूपान्तर हो गया। इस प्रकार लोक से जुड़कर कूप-जल के घेरे को तोड़ती हुई वैयक्तिक पांडित्य या आकांक्षा से परिचालित न होकर एक बहुत बड़ी जातीय सामाजिक आशय से जुड़ती है। निजी अनुभव-संसार से बाहर निकलकर सार्वजनीन बनती है। अपभ्रंश कवियों
लिए जैसे पूरा समाज ही उसके सामने उपस्थित है। आभिजात्य से मुक्ति पाकर जैन, सिद्धनाथ, ऐहिक एवं मुक्त साहित्य का स्वरूप ग्रहण करती है। अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू ऐसे समाज के लिए जो पंडिताई के गर्व में चूर नहीं हैं, समाज के साथ रागात्मक सम्बन्ध से जुड़ा हुआ है, सामान्य भाषा में अपनी रचना रचने की वृत्ति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। गामेल्ल या ग्रामीण भाषा को छोड़कर आगम-निगम की भाषा में गढ़िया-जड़िया बनने का उसका उत्साह नहीं है। यदि ऐसे पाखंडी को यह भाषा न रुचे तो उसे हाथ से उछालकर फेंक देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं है -
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