Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती -8
उस जिनमन्दिर के समीप सत्पुरुष के समान एक वट वृक्ष है जिसकी जड़ें स्थिरता से जमी हुई हैं । अतएव जो उस सत्पुरुष के समान है जिसके वंश का मूल पुरुष चिरस्थायी कीर्तिमान है । उसमें बिना फूलों के खूब फल- सम्पत्ति थी । अतः वह उस सत्पुरुष के समान था जो निष्कारण उपकार करता है। वह कपियों द्वारा सेवित था जैसे सत्पुरुष कवियों द्वारा । वह पक्षियों को फल का दान किया करता था जैसे सत्पुरुष द्विजों को। वह पथिकों के श्रम को अपनी छाया द्वारा दूर करता था जैसे सत्पुरुष दीन-दुखियों के सन्ताप को अपने धन द्वारा । वह पत्तों को झराया करता था जैसे सत्पुरुष पात्रों का उद्धार करता है । उस वट वृक्ष से रगड़कर हाथी अपने गंडस्थलों की खुजली मिटाया करते थे ।
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उनका 'जसहरचरिउ' नामक खण्डकाव्य जसहर ( यशोधर) और उसकी माता चन्द्रमति के अनेक जन्मों की कथा एवम् जैनधर्म की महिमा पर आधारित है। इस खण्डकाव्य में कवि ने प्रकृति एवं पशु-पक्षियों के प्रति प्रत्येक मानव के हृदय में करुणा एवम् सहानुभूति उत्पन्न करने की दृष्टि से ही जसहर तथा चन्द्रमति के भिन्न-भिन्न पशु-पक्षियों की योनि में प्राप्त जन्मों का उल्लेख किया है। नदी, वृक्ष, पुष्प, सुगन्ध, वायु, पृथ्वी, जल, उपवन, ईख के खेत, भंवरे, प्रातः, संध्या, निशा, सूर्योदय तथा चन्द्रोदय आदि प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से प्रकृति-चित्रण को साकार रूप प्रदान करना इस खण्डकाव्य की अद्वितीय विशेषता है। निम्नलिखित पंक्तियों में संश्लिष्ट, प्रकृति-वर्णन के अन्तर्गत, तटवर्ती वृक्षों से पतित पुष्पराशि से सुसज्जित क्षिप्रा नदी में रंग-बिरंगे वस्त्र धारण किये हुए प्रकृतिरूपी सुन्दरी के रूप लावण्य की संभावना इस बात की प्रमाण है
तड़तरुपडियकुसुमपुंजज्जल पवण वसा चलंतिया । दीसइ पंचवण्ण णं साड़ी महिमहिलहि घुलंतिया । जलकीलंत तरुणिघणयण जुयवियलिय घुसिणपिंजरा । वायाहयविसाल कल्लौल गलच्छिय मत्तकुंजरा । कच्छवमच्च्छ संघट्ट विहाट्टियसिप्पिसपुडा
- वह अपने तटवर्ती वृक्षों से गिरनेवाले पुष्पों के समूहों से उज्वल है तथा पवन के कारण
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तरंगों से चलायमान है, इस कारण वह ऐसी दिखाई देती है मानो पृथ्वीरूपी महिला की लहलहाती हुई पचरंगी साड़ी हो। वायु के थपेड़ों से उठनेवाली विशाल कल्लोलों द्वारा वहाँ मदोन्मत हाथी उत्प्रेरित हो रहे हैं। वहाँ कछुओं और मछलियों की पूँछों के संगठन से सीपों के सम्पुट विघटित हो रहे हैं ।
अपनी सुन्दर कल्पना को चित्रित करने के लिए कवि संध्या-वर्णन करते हुए कहता है
अत्थसिउ रत्तउ मित्तुजहिं, दिसिणारि वि रज्जइ बप्प तहिं । रणवीरु विसरु किं तवइ, बहु पहरिहिं णिहणु जि संभवइ । रवि उग्गु अहोगइणं गयउ णं रत्तउ कंदउ णिक्खियउ । तहि संझा वेल्लि वणीसरिय, जग मंडवि सा णिरु वित्थरिय ।