Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 25
________________ 12 अपभ्रंश भारती - 8 इन कथाओं में हुई है। इस दृष्टि से भविसयत्तकहा, विलासवईकहा, सिरिपालकहा, जिणयत्तकहा, महापुराण, णायकमारचरिउ, जसहरचरिउ, करकण्डचरिउ. धम्मपरिक्खा आदि कथा-काव्य स्मरणीय हैं। प्राकृत और अपभ्रंश का यह समूचा कथा साहित्य लोकाख्यानात्मक है जो आज हिन्दी साहित्य में मिथक बन गया है। हिन्दी में मिथक (Myth) शब्द के प्रथम प्रयोग का श्रेय डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी को जाता है और साहित्यिक संदर्भ में उसकी उपयोगिता, महत्ता तथा उपयुक्तता की प्रतिष्ठा में डॉ. रमेश कुन्तल मेघ का योगदान उल्लेखनीय है। वस्तुत: मिथक का संबंध पुराख्यान, पुराण, पुरावृत्त, दन्तकथा, निजधरी, धर्मकथा आदि जैसे समान भाव व्यंजक तत्त्वों से प्रस्थापित किया जा सकता है। आनुषंगिकरूप से भले ही इन आख्यानों में ऐतिहासिकता का प्रवेश हो जाये पर तथ्यत: उनका संबंध इतिहास की परिधि से बाहर रहता है। आस्था और अनुभूति उससे अवश्य जुड़ी रहती है पर रहस्यात्मकता के साथ ही व्यंग्यात्मकता, कौतुहल, नैतिकता, लोकतत्त्वात्मकता, प्रतीकात्मकता, सामाजिकता जैसे तत्त्व भी उसके अंतर में प्रच्छन्न रहते हैं। इन तत्त्वों की पूर्ति के लिए लोकप्रिय कथानक गढ़ा जाता है जिसे मनोरंजक बनाने के लिए विविध तत्त्वों का उपयोग/प्रयोग किया जाता है। ये ही तत्त्व कालान्तर में कथानक रूढ़ियों के रूप में प्रसिद्ध हो जाते हैं। कथानक रूढ़ि को अंग्रेजी में 'फिक्सन मोटिव' कहा जाता है। इस शब्द का सबसे पहला प्रयोग विलियम जे. थामस ने सन् 1846 में किया था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस शब्द की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है - "हमारे देश के साहित्य में कथानक को गति और घुमाव देने के लिए कुछ ऐसे 'अभिप्राय' बहुत दीर्घकाल से व्यवहृत होते आये हैं जो बहुत दूर तक यथार्थ होते हैं और जो आगे चलकर कथानक रूढ़ि में बदल जाते हैं"। इससे स्पष्ट है कि कथानक रूढ़ियों की अवधारणा के पीछे कथानक को मनोरंजक और गतिशील बनाने का उद्देश्य छिपा हुआ है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोकाख्यान, लोक-विश्वास और लोक-रीतियों का समुचित उपयोग किया जाता रहा है। यह आवश्यक नहीं है कि लोकाख्यानों में यथार्थता और वैज्ञानिकता रहे, पर इतना अवश्य है कि उनके गर्भ में संभावना और मनोवैज्ञानिकता अवश्य भरी रहती है। चामत्कारिकता, असंभवनीयता, अतिमानवीयता और तथ्यात्मकता जैसे तत्त्वों का आधार लेकर कथानक को रुचिकर बना लिया जाता है और सामुद्रिक यात्रा, अपहरण, काष्ठफलक द्वारा प्राण- रक्षा, नायक-नायिका का विवाह या मिलन जैसी निजंधरी घटनाओं को अन्तर्भूत कर स्वप्न, शकुन आदि से सम्बद्ध विश्वासों के माध्यम से आध्यात्मिकता का संनिवेश किया जाता है। इसी संनिवेश में जीवन की मनोरम व्याख्या कर दी जाती है। __ ये रूढ़ियां काव्यात्मक, कलात्मक और कथानक-रूप हुआ करती हैं। काव्यात्मक रूढ़ियों को 'कवि समय' कहा जाता है जिनका उपयोग कविगण अपने अभिजात साहित्य में करते आये हैं। कलात्मक रूढ़ियों का प्रयोग संगीत, मूर्ति और चित्रकला के क्षेत्र में होता आया है। इसी तरह कथानक रूढ़ियों में लोकाख्यानगत अन्य ऐसे कल्पित तत्त्व आते हैं जिनका उपयोग तत्कालीन संस्कृति को दिग्दर्शित कराने में किया जाता है। इनमें से कलात्मक रूढ़ियों को छोड़कर शेष दोनों प्रकार की (काव्यात्मक और कलात्मक) रूढ़ियों की यात्रा प्राकृत कथा

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