Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 27
________________ अपभ्रंश भारती -8 6. ऐसी लौकिक कथानक रूढ़ियां जिनका संबंध यौन या प्रेम व्यापार से है। 7. कवि-कल्पित कथानक रूढ़ियाँ। 8. शरीर वैज्ञानिक अभिप्राय। 9. सामाजिक परम्परा, रीति-रिवाज और परिस्थितियों की द्योतक रूढ़ियाँ । 10. आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूढ़ियाँ।' ये सारी कथानक रूढ़ियाँ अपभ्रंश कथा साहित्य में कुछ और विकसित होकर उभरी हैं जिन्हें निम्न रूप में विभाजित किया जा सकता है - 1. आध्यात्मिक और धार्मिक कथानक रूढ़ियाँ। 2. सामाजिक कथानक रूढ़ियाँ और 3. प्रबंध संघटनात्मक रूढ़ियाँ। 1. आध्यात्मिक और धार्मिक कथानक रूढ़ियाँ आगम युगीन प्राकृत कथा साहित्य मूलतः उपदेशात्मक और आध्यात्मिक है। उसमें रूपकों और प्रतीकों के माध्यम से जीवन-सत्य को पहचानने का भरपूर प्रयत्न किया गया है। ये कथाएं आकार में छोटी होने पर भी हृदय पर अमिट प्रभाव छोड़ती हैं। टीका युग तक आते-आते इनमें कथानक रूढ़ियों का ढाँचा बनने लगता है और नीतिपरकता की पृष्ठभूमि में लोकाख्यानों पर धार्मिकता का आवरण चढ़ा दिया जाता है, इस दृष्टि से चूर्णी-साहित्य विशेष द्रष्टव्य है। आगे चलकर तरंगवती, वसुदेवहिण्डी काव्यकथा ग्रंथों में नायकों की चरित्रसृष्टि के संदर्भ में साहस, प्रेम, चमत्कारिता, छल-कपट, पशु-पक्षियों की विशेषताएं, कौतुहल आदि जैसी कथानक रूढ़ियों का उपयोग कर कथाओं को मनोरंजक बनाया जाने लगा और अपभ्रंश तक आते-आते उनमें आध्यात्मिकता का समावेश और अधिक हो गया। इस कथानक रूढ़ि के अन्तर्गत गुरु-प्राप्ति, निर्वेद का कारण, जाति-स्मरण, पूर्वभव, पनर्जन्म-श्रंखला. तप. उपसर्ग. केवलज्ञान प्राप्त होने पर आश्चर्यदर्शन जैसी कथानक रूढियों का परिगणन किया जाता है। दशवैकालिक की हरिभद्र वृत्ति तथा अन्य प्राकृत-अपभ्रंश ग्रंथों में व्यंतर द्वारा प्रसादनिर्माण, व्यंतरी द्वारा 'धरण' के प्राण-हरण का प्रयत्न, व्यंतर के प्रभाव से हार को निगलना और उगलना, विद्याधरों द्वारा विपन्न लोगों की सहायता, दुष्कर कार्य करने के लिए अलौकिक दिव्यशक्ति द्वारा चमत्कार-प्रदर्शन, तीर्थंकरों की महत्ता प्रकट करने के लिए लौकांतिक देवों के विविध कार्यों का उल्लेख आदि ऐसी कथानक रूढ़ियां हैं जिनका उपयोग नायक-नायिका के चारित्रिक उत्कर्ष, कथानक में गति एवं मोड़ तथा कर्मफल की अनिवार्यता के प्रदर्शन के लिए किया गया है। __ भक्ति साधना का अटूट तत्त्व है। मानव तो अपने इष्टदेव की भक्ति करके फलाकांक्षी होते ही हैं पर पशु-पक्षी भी अपनी भक्ति और शुभ परिणामों से उत्तम फल प्राप्त करना चाहते हैं। मेंढक कमल की पाखंडी लेकर महावीर की पूजा करने जाता है तो वानर शिवजी की भक्ति करता दिखाई देता है। तोता जिन-पूजा के फल से राजकुमार के रूप में जन्म धारण करता है।

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