Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 50
________________ अपभ्रंश भारती - 8 37 डालतीं, इनका परिचय कितना अपवित्र है। जहाँ गुणी लोगों को कुछ प्राप्त नहीं होता, वेश्यागामी भुजंगों को गौरव मिलता है। वेश्या के मन्दिर में निश्चय ही धूर्त लोगों के रूप में काम निवास करता है - एक हाट करेओ ओर औका हाट के कोर। राजपथ क । सन्निधान सञ्चरन्ते अनेक देणिअ वेश्यान्हि करो निवास ॥ जन्हि के निर्माणे विश्वकर्महु भेल वड प्रयास । अवरु वैचित्री कहजो का, जन्हि के केस धूप-धूप करी रेखा ॥ ध्रुवहु उंघर जा। काहु-काहु अइसनो सङ्क, ओकरा काजर । चाँद कलंक। लज्ज कित्तिम, कपट तारुन्न। धन निमित्ते ॥ धरु पेम; लोभे विनअ सौ भागे कामन। विनु स्वामी । सिन्दुर परा परिचय अपामन ॥ जं गुणमन्ता अलहना गौरव लहइ भुवंग । वेसा मंदिर धुअ बसइ धुत्तइ रूप अनंग ॥" . इसी प्रकार का वेश्या-वर्णन जंबुसामिचरिउ में भी पाया जाता है। कवि शिष्ट शैली में वेश्यावर्णन प्रस्तुत करता है - जहाँ विभूषित रूपवती वेश्या रूप्यकरहित मनुष्य को विरूप मानती है। क्षणभर देखा हुआ पुरुष यदि धनी है तो प्रिय सिद्ध होता है और निर्धन प्रणयी ऐसा माना जाता है जैसा जन्म से भी कभी नहीं देखा। वह वेश्या कुलहीन होती है और भुजंगों - विटों के दंत और नखों से विद्ध होती है। काम को उद्दीप्त करनेवाली होती है और स्नेह से शून्य होती है। अनुरक्त कामुकों के आकर्षण में दक्ष होती है। जिसका नितम्ब मेरु पर्वत की भूमि के समान होता है, मध्यभाग - किंपुरुषादि देव योनियों से या कुत्सित पुरुषों से सेवित होता है। वह नरपति की नीति के समान अनर्थ संयोग को दूर से ही छोड़ देती है। जिसके अधर में अनुराग होने पर पुरुष विशेष के संग में प्रवृत्त नहीं होती - वेसउ जत्थ विहूसिय रूवउ, नरु मण्णंति विरूउ विरूवउ । खण दिदो वि परिस पिउ.सिद्धउ पणयारूढन जन्म वि दिदठउ॥ णउलव्भवउ ताउंकिर मणियउ, तो वि भुयंग दंत नहि वणियउ । वम्महं दीवियाउ अविभयत्तउ, तो वि सिणेह संग परिचत्तउ ॥ लग्गिर सायणि सत्थ सरिच्छउ, कामुअ रत्ता करिसण दच्छउ । मेरु महीहर महि पडिविंवउ, सेविय बहु किं पुरिस नियंवउ ॥ नरवड णीड समाण विहोयउ, दरुज्झिय अणत्थ संजोयउ । अहरे राउ पमाणु वि जहुं वट्टइ, पुरिस विसेस संगि न पयट्टइ ॥१० ये वेश्याएं श्रृंगार करती हैं। मुख को चन्दन आदि के लेप से मण्डन करती हैं। अलकों में तथा कपोल-स्तनादि पर कुंकम-चन्दनादि से पत्रावली बनाती हैं। दिव्य वस्त्र धारण करतीं, उभार-उभार कर केश-पाश बाँधती, दूतियों को प्रेरित करतीं कि वे नायक के पास जायें। हँसकर देखतीं। तब उन सयानी, लावण्यमयी, पतली, कृशोदरी, तरुणी, चंचला, चतुरा, परिहासप्रगल्भा, सुन्दरी नायिकाओं को देखकर इच्छा होती है कि तीसरे पुरुषार्थ (काम) के लिए अन्य तीनों छोड़ दिये जायें -

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