Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 56
________________ अपभ्रंश भारती - 8 नवम्बर, 1996 संत साहित्य और जैन अपभ्रंश काव्य - डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी मध्यकालीन हिन्दी निर्गुण साहित्य के लिए अब 'संत साहित्य' शब्द रूढ़ हो गया है। मध्यकालीन समस्त भारतीय साधनाएँ आगम-प्रभावित हैं, संत साहित्य भी। संत साहित्य को प्रभावित कहने की अपेक्षा मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि वह 'आगमिक दृष्टि' का ही लोकभाषा में सहज प्रस्फुरण है। अतः 'प्रभावित' की जगह उसे 'आगमिक' ही कहना संगत है। 'आगमिक दृष्टि' को यद्यपि आर. डी. रानाडे ने अपने 'Mystitism in Maharastia' में वैदिक सिद्धान्त का साधनात्मक अविच्छेद्य पार्श्व बताया है। इस प्रकार वे आगम को यद्यपि नैगमिक कहना चाहते हैं पर इससे आगम के व्यक्तित्व का विलोप नहीं होता। प्राचीन आर्य ऋषियों की एक दृष्टि का जैसा विकास और परिष्कार आगमों में मिलता है वैसा नैगमिक दर्शनों' में नहीं। इसलिए मैं जिसे 'आगमिक दृष्टि' कहना चाहता हूँ उसका संकेत भले ही वैदिक वाङ्मय में हो पर उसका स्वतंत्र विकास और प्रतिष्ठा आगमों में हुई - यह विशेषरूप से ध्यान में रखने की बात है। _ 'आगम' यद्यपि भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रचलित और प्ररूढ़ शब्द है तथापि यहाँ एक विशेष अर्थ में वांछित है और वह अर्थ है - द्वयात्मक अद्वय तत्त्व की पारमार्थिक स्थिति। द्वय हैं - शक्ति और शिव। विश्वनिर्माण के लिए स्पन्दनात्मक शक्ति की अपेक्षा है और विश्वातीत स्थिति के लिए निष्पंद शिव। स्पंद और निष्पंद की बात विश्वात्मक और विश्वातीत दृष्टियों से की जा रही है, दृष्टि-निरपेक्ष होकर उसे कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती। तब वह विश्वातीत तो है ही, विश्वात्मक परिणति की संभावना से संज्ञातीत होने के कारण विश्वात्मक भी। वैज्ञानिक भाषा

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