Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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रामसिंह तो सहजावस्था की बात बार-बार कहते हैं ।
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इस प्रकार जैनधारा जिन बातों में अपना प्रस्थान पृथक् रखती आ रही है 1. परतत्त्व की द्वयात्मकता, 2. द्वैत के समस्तविध निषेध तथा 3. वासना-शोधन का सहजमार्ग- उन आगमिक विशेषताओं का प्रभाव जैन अपभ्रंश काव्यों में उपलब्ध होता है। मध्यकाल की भाषाबद्ध अन्यान्य रचनाओं में आगमसंवादी संतों की पारिभाषिक पदावलियाँ इतनी अधिक उदग्र होकर आई हैं. कि जैन मुनियों या कवियों का नाम तरा देने पर पर्याप्त भ्रम की गुंजाइश है।
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अपभ्रंश भारती - 8
इन महत्त्वपूर्ण प्रभावों के अतिरिक्त ऐसी और भी अनेक बातें हैं जिन्हें 'संतों' के संदर्भ में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए - 1. पुस्तकीयज्ञान की निंदा, 2 भीतरी साधना पर जोर, 3. गुरु की महत्ता, 4. वाह्याचार का खंडन आदि ।
1. आगम 'बहिर्याग' की अपेक्षा 'अंतर्याग' को महत्त्व देते हैं और सैद्धान्तिक वाक्यबोध की अपेक्षा व्यावहारिक साधना को । सैद्धान्तिक वाक्य बोध में जीवन खपाने को प्रत्येक साधक व्यर्थ समझता है, यदि वह क्रिया के अंगरूप में नहीं है। संतों ने स्पष्ट ही कहा है पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय । परमात्मप्रकाशकार का कहना है
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सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु ।
देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ॥ 214॥
- शास्त्रानुशीलन के बाद भी यदि विकल्प- जाल का विनाश न हुआ तो ऐसा शास्त्रानुशीलन किस काम का ? इसी बात को शब्दान्तर से 'योगसार' में भी कहा है
जो वि जण अप्पु पर णवि परभाउ चएइ ।
सो जाण सत्थई सयल ण हु सिव सुवसु लहेइ ॥ 96 ॥
• जिसने सकल शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके भी यह न जाना कि क्या उपादेय और क्या हेय है, क्या आत्मीय है और क्या परकीय है, संकीर्ण स्पष्ट भाव में व्यस्त रहकर जिसने परभाव का त्याग नहीं किया वह शिवात्मक सुख की उपलब्धि किस प्रकार कर सकता ? इसी प्रकार दोहापाहुडकार का भी विश्वास है कि जिस पंडित शिरोमणि ने पुस्तकीय ज्ञान में तो जीवन खपा दिया पर आत्मलाभ न किया उसने कण को छोड़कर भूसा ही कूटा है
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पंडिय पंडिय पंडिया, कणु छंडिवि तुस कंडिया । अत्थे गंथे तुट्ठो सि, परमत्थु ण जाणहि मूढ़ोसि ॥ 85 ॥ 2. पुस्तकी ज्ञान की अवहेलना के साथ संतों का दूसरा संवादी स्वर है भीतरी साधना मत अंतर्याग पर बल । सिद्धों, नाथों और संतों की भाँति इन जैन मुनियों ने भी कहा है कि जो साधु वाह्य लिंग से तो मुक्त है किन्तु आंतरिक लिंग से शून्य है वह सच्चा साधककर्ता है ही नहीं, विपरीत इसके मार्ग - भ्रष्ट है। सच्चा लिंग भाव है, भाव-शुद्धि से ही आत्मप्रकाश संभव है । मोक्ष पाहुड में कहा गया है
वाहिर लिंगेण जुदो अभ्यंतरलिंगरहिय परियम्मो ।
सो सगचारित्तभट्टो मोक्ख पहविणासगो साहू ॥ 61॥