Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती-8
भी वे ही तांत्रिक ग्रंथ हैं। बौद्धों की भाँति जैनों पर भी यह प्रभाव दृष्टिगत होता है। आगमिकों की भाँति जैन मुनियों ने भी परमात्मभाव को 'समरस' ही नहीं कहा है 'शिव-शक्ति' का समरूप या अद्वयात्मक रूप भी कहा है। मुनि रामसिंह ने पाहुड दोहा में कहा है -
सिव विणु सन्ति ण वावरइ, सिउ पुणु सन्ति विहीणु ।
दोहिमि जाणहिं सयलु जगु, वुज्झइ मोह - विलीणु ॥55॥ - शक्तिरहित शिव कुछ नहीं कर सकता और न शक्ति ही शिव का आधार ग्रहण किए बिना कुछ कर सकती है। समस्त जगत् शिवशक्तिमान है। जड़ परमाणु अपनी समस्त संरचना में गतिमय सस्पंद है जो शक्ति का ही स्थूल परिणाम है। दूसरी और जीव भी डी.एन.ए. तथा आर.एम.ए. के संयुक्त रूप में द्वयात्मक है। एकत्र वही शक्ति शिव ऋणात्मक-धनात्मक अवयव हैं अन्यत्र स्त्रीत्व तथा पुंस्त्व का सम्मिलन - इस प्रकार सारा जगत् द्वयात्मक है - जो अपनी निरपेक्ष स्थिति में अद्वयात्मक है। संत साहित्य के अन्तर्गत राधास्वामी साहित्य तथा गुरुनानक की 'प्रागसंगली' में भी इस सिद्धान्त का बृहद् रूप में निरूपण है। परतत्त्व या परमात्मा को समरस कहना द्वयात्मकता-सापेक्ष ही तो है। अभिप्राय यह कि मूल धारणा आगमसम्मत है - वही इन जैन मुनियों की उक्तियों में तो प्रतिबिम्बित है ही, संतों ने भी 'सुरत' तथा 'शब्द' के द्वारा तांत्रिक बौद्ध सिद्धों ने 'शन्यता' और 'करुणा' तथा 'प्रज्ञा' और 'उपाय' के रूप में उसी धारणा को स्वीकार किया है। अन्यत्र 'समरसीकरण' की भी उक्तियाँ हैं -
मणु मिलियउ परमेसर हो, परमेसरु जि मणस्स ।
विण्णि वि समरसि हुइ रहिय, पुज्जु चडावउ कस्स ॥ 49॥ पाहुड दोहा - मन परमेश्वर से तथा परमेश्वर मन से मिलकर समरस हो जाता है और जब यह सामरस्य हो गया, तब द्वैत का विलय भी हो जाता है। द्वैत का विलय हो जाने से कौन पूजक और कौन • पूज्य ? कौन आराधक और कौन आराध्य? फिर तो 'तुभ्यं मह्यं नमो नमः' की स्थिति आ जाती है। इस तरह सामरस्य की अनेकत्र चर्चा उपलब्ध हो जाती है।
देह महेली एह वढ तउ सत्तावइ ताम ।
चित्तु णिरंजणु परिणु सिंहु समरसि होइ ण जाम ॥ 64॥ पाहुड दोहा - लक्ष्य के रूप में इसी 'सामरस्य' की उपलब्धि भी उन्हें इष्ट है। संतों ने जिस मनोन्मती दशा की ओर संकेत किया है उसका पूर्वाभास इन लोगों में भी उपलब्ध है -
तुट्टइ वुद्धि तड़त्ति जहिं मणु अंथवणहं जाइ।
सो सामिय उपएसु कहि अणणहिं देवहिं काई ॥ 183॥ पाहुड दोहा - इस सामरस्य की उपलब्धि हो जाने पर बुद्धि का आहंकारिक 'अध्यवसाय' तथा मन की संकल्प-विकल्पात्मक वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। आगम संवादी संतों के स्वर में आम देवताओं की उपासना से विरति तथा उक्त गंतव्य की उपलब्धि ही स्वामी की ओर से इन्हें मान्य है। कहीं-कहीं तो संतों और इन जैन मुनियों की उक्तियाँ एक-दूसरे का रूपान्तर जान पड़ती हैं। नमक और पानी के एक ही दृष्टान्त से जो बात रामसिंह कहते हैं वही कबीर भी।