Book Title: Apbhramsa Bharti 1996 08
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती -8
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इसी प्रकार विद्या और मंत्र-सिद्धि से समुद्र पार करना, कुष्ठ रोग से मुक्ति पाना, चन्द्रेश्वरी, रोहिणी, पद्मावती, ज्वाला-मालिनी, क्षेत्रपाल, अम्बिका आदि यक्ष-यक्षणियों की स्थापना, सरस्वती की आराधना आदि तत्त्व भी धार्मिक विश्वास के परिणाम हैं। ____ अलौकिक शक्तियों का समावेश अपभ्रंश कथा-काव्यों का प्रमुख आकर्षण रहा है। हाथी का रूप धारणकर मदनावली का अपहरण, अतिमानव द्वारा सुदर्शन की रक्षा, यक्ष की सहायता से भविष्यदत्त द्वारा अपनी पत्नी की प्राप्ति आदि घटनाएँ हमारे कथन को प्रमाणित करती हैं। हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यों में भी इसी तरह की अलौकिक शक्तियों का उल्लेख थोड़े अंतर से हुआ है। वहाँ नायक कभी-कभी नायिका से भिन्न किसी युवती की राक्षस, दानव आदि से रक्षा करते हैं। मृगावती में राजकुंवर रुक्मिन की रक्षा एक राक्षस से करता है और फिर उससे विवाह भी करता है। इस तरह और भी अनेक उल्लेख मध्यकालीन हिन्दी के प्रबंध काव्यों में मिलते हैं। 2. सामाजिक कथानक रूढ़ियाँ
समाज व्यक्तियों का समुदाय है और समुदाय विविधता का प्रतीक है इसलिए समाज में घटना और विचार-जन्य अनगिनत रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है जिनका संबंध, देश, काल, क्षेत्र और भाव से रहा है। इसके अन्तर्गत लोक-प्रचलित विश्वास, तंत्र-मंत्र, औषधियों, पशु-पक्षियों और सामाजिक परम्पराओं से सम्बद्ध कथानक रूढ़ियों पर विचार किया जा सकता है। समराइच्चकहा, भविसयत्तकहा आदि कथा ग्रंथों में ये रूढ़ियाँ उपलब्ध हैं।
हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यानों में अपभ्रंश की साधना-पद्धति का विकास हुआ। मृगावती का राजकुंवर, पद्मावत का रत्नसेन, मधुमालती का मनोहर, चित्रावली का सुजान तथा ज्ञानद्वीप का ज्ञानदीप, ये सभी नायक मूलतः साधक हैं, प्रेमपथिक हैं जो 'स्व' को मिटाकर अपने में समाहित होने के प्रयत्न में लगे हैं। पद्मावत की नायिका-नायक क्रमशः ब्रह्म और जीव के रूप में चित्रित हैं। साधनों की सात सीढ़ियों पर आरूढ़ होने के लिए, राजकुँवर मृगावती की खोज के लिए और रत्नसेन पद्मावती पाने के लिए योगी बनकर निकल पड़ते हैं। __ अध्यात्म और धर्म से संबंध है आत्मा, परमात्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म, गुरुप्राप्ति, अमानवीय शक्तियों की उपलब्धि, देवी-देवताओं की अतिमानवीयता जैसे अनेक तत्त्वों का। इनसे सम्बद्ध कथानक रूढ़ियों का प्रयोग प्राकृत-अपभ्रंश के कथा काव्यों तथा हिन्दी के सूफी-असूफी काव्यों में बहुतायत से हुआ है।
कर्मफल और पुनर्जन्म - कर्मफल और पुनर्जन्म की मान्यता अपभ्रंश काव्यों की रीढ़ है। संस्कारों को विशुद्ध बनाने के लिए कथाओं के माध्यम से वहाँ अनेक आध्यात्मिक साधनों का उपयोग बताया है। भविसयत्तकहा, विलासवईकहा, जिणयत्तकहा, सिद्धचक्ककहा आदि कथाकाव्यों में शुभाशुभ कर्म,कर्मार्जन के कारण, कर्मबंध की व्यवस्था आदि का सुंदर निरूपण हुआ है। श्रीपाल-कथा में पिता से जेठी पुत्री और कर्मफल दोनों अभिप्राय एकसाथ प्रयुक्त हुए हैं। समुद्रदत्त जिनदत्त के साथ विश्वासघात करने से कुष्ठरोग को आमंत्रित करता है और अल्पायु में ही प्राण त्याग देता है। पूर्वजन्म में हंस-हंसी को वियुक्तकर सनतकमार इस जन्म में विलासवती का वियोग सहन करता है। पूर्वजन्म के कर्म-विपाक से श्रीपाल को कुष्ठरोग होता है। पूर्वजन्म के संस्कारवश सनतकुमार और विलासवती में प्रेम होता है और पूर्वजन्म के पुण्य फल से